संपादकीय

अरुणाचलम मुरुगनाथम हैं असली ‘पैडमैन’

अब भले ही अक्षय कुमार ‘पैडमैन’ फिल्म बनाकर नायक के रूप में एक अचर्चित महानायक का श्रेय ले लें, लेकिन हकीकत में जिस ‘पैडमैन’ अरुणाचलम मुरुगनाथम ने श्रमसाध्य पीड़ादायक और भगीरथ प्रयास किए, उसके लिए आम महिलाएं उनकी सदैव ऋणी रहेंगी। मासिक धर्म की कष्टदायक प्रक्रिया के दौरान गरीबी और अज्ञानता के चलते महिलाओं को जिस असहज व विकट परिस्थितियों से गुजरना होता है, उस टीस को अरुणाचलम ने शिद्दत से महसूस किया। भारतीय समाज में इस वर्जित विषय पर जुनूनी अंदाज से काम करते हुए उन्हें पागल, भूत-बाधा से ग्रसित, यौन कुंठित करार दिया गया। विडंबना देखिये कि स्त्री गरिमा के लिए प्राणपण से काम करने वाले मुरुगनाथम के असामान्य क्रियाकलाप देखकर पहले पत्नी और फिर मां भी छोडक़र चली गई। गांव वालों ने उसे प्रेतबाधा ग्रसित मानकर उस पर काला जादू करना चाहा तो उसने गांव तक छोड़ दिया।

आज अरुणाचलम मुरुगनाथम एक सामाजिक उद्यमी हैं। सस्ते सेनेटरी नैपकिन बनाने की फैक्टरी है। उनकी बनाई गई मशीन से सस्ते सेनेटरी नैपकिन बनाने के उद्यम में हजारों महिलाएं शामिल हैं। देश के 23 प्रदेशों के तेरह सौ गांवों में अरुणाचलम की मशीन चमत्कार कर रही है। यही नहीं, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, अफ्रीका के कई देशों में यह मशीन गरीब महिलाओं को सम्मान से जीने की राह दिखा रही है। ‘टाइम’ मैगजीन ने दुनिया के सौ प्रभावशाली लोगों की सूची में अरुणाचलम को शामिल किया है। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है।

ए.सी. नील्सन के सर्वे में बीते साल बताया गया था कि भारत में सिर्फ 12 फीसदी महिलाएं सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं। एक बड़ी आबादी आज भी इस मुश्किल वक्त में पुराने गंदे कपड़े, कागज यहां तक कि सडक़ के किनारे बंजारा जीवन जीने वाली महिलाएं राख का प्रयोग मासिक धर्म के रिसाव को सोखने के लिए करती हैं।

अथाह गरीबी में तमिलनाडु के कोयंबटूर में 1962 में जन्मे अरुणाचलम मुरुगनाथम ने छोटी उम्र में एक सडक़ दुर्घटना में पिता को खो दिया। मां मजूदरी करके परिवार का पेट पालती थी। घर के हालात ने 14 साल की उम्र में स्कूल छुड़वा दिया। फिर किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके वे अपना घर चलाने लगे। उनके जीवन में बदलाव 1998 में शांति से विवाह के बाद आया। एक दिन पत्नी को गंदे कपड़े छिपाते देख, जिज्ञासावश पूछा-ये क्या है? पत्नी ने प्यार से चपत लगाते हुए कहा कि तुम्हारे मतलब की बात नहीं है। पत्नी का कहना था कि घर का बजट न बिगड़े, इसलिए वह पुराने कपड़े व कागज का प्रयोग करती है। अरुणाचलम को इससे गहरा आघात लगा।

इसे देखकर अरुणाचलम ने ऐसी मशीन बनाने की ठान ली, जो सस्ते पैड बना सके। वे पढ़े-लिखे नहीं थे। साधन भी नहीं थे। मगर वे हार मानने वाले नहीं थे। वर्जित विषय पर महिलाएं बात नहीं करती थीं। प्रयोग के लिए उन्होंने मेडिकल कॉलेज की 20 लड़कियों को फीडबैक शीट्स के साथ अनुभव देने को कहा। लेकिन उन्होंने अपना फीडबैक ठीक से नहीं दिया। तीन लड़कियों ने सबके फार्म भर दिए।

उन्होंने खुद पर प्रयोग करने का फैसला किया। उन्होंने फुटबाल के ब्लैडर में अपने कसाई मित्र से लेकर बकरी का खूना भरा, सेनेटरी नैपकिन खुद लगाया। फिर साइकिल चलाई ताकि दबाव से रक्त रिसाव न हो। वे घरों के पीछे पड़े प्रयोग किए नेपकिन उठाते। लेकिन उनके इस जुनून को लोगों ने पागलपन समझा। किसी ने उनके पुरुषत्व पर शंका जताई। पत्नी ने वूमनाइजर समझा और घर छोडक़र चली गई। बाद में मां भी चली गई। लोगों ने उनसे दूरी बना ली।

उन्होंने पैड बनाने वाली कंपनियों से पूछा तो किसी ने बताया नहीं, तो किसी ने गलत जानकारी दी। बाद में उन्हें पता चला कि इसमें सिर्फ कॉटन ही नहीं, पेड़ की छाल से निकलने वाले सैल्युलोज का इस्तेमाल भी होता है। इसको बनाने वाली लकड़ी की मशीन को लेकर वे आईआईटी मद्रास गए। कालांतर उनकी उपलब्धि पर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने इस नैसर्गिक प्रतिभा को सम्मानित किया। फिर साढ़े पांच साल बाद पत्नी का फोन आया कि वह घर वापस आना चाहती है।

अरुणाचलम की मशीन की लागत 75 हजार आती है। हर मशीन प्रतिदिन 250 पैड बनाती है। प्रति नैपकिन ढाई रुपये में बेचा जाने लगा। नेपकिन बनाने वाली महिलाओं ने अपना ब्रांड बनाने के बाद बेचना और अपना घर चलाना शुरू किया। अरुणाचलम ने जयश्री इंडस्ट्री स्थापित की।

-अरुण नैथानी

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button