दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय, 5 नवंबर : देश के सारे चुनाव एक साथ करवाने की सोच आकर्षक
भारत के चुनावों में बड़ी-बड़ी सभाओं में जुटे लोगों के बीच बड़े-बड़े नेता अपना आपा खोकर कई तरह की बातें करते हैं जो कि देश के उस चुनावग्रस्त इलाके को भड़काने के लिए कही जाती हैं, लेकिन इससे देश के बाकी हिस्से को जख्म भी पहुंचते हैं। जब अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग वक्त पर चुनाव होते हैं, तो यह सिलसिला हर कुछ महीनों में सामने आता है, और बहुत सी कड़वाहट, बहुत सी गंदगी छोड़ जाता है। मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ऐसी जो कोशिशें होती हैं, उनसे बाकी देश भी बुरी तरह प्रभावित होता है।
अब जब यह लगता है कि विधानसभा, लोकसभा, और स्थानीय संस्थाओं के चुनाव देश में अगर एक साथ हो जाएं, तो यह सारी गंदगी दो महीनों में सिमट जाएगी, और बाकी के करीब पौने पांच बरस सभी सरकारें कामकाज पर ध्यान दे सकेंगी। लेकिन कुछ लोग ऐसी व्यवस्था को गलत भी मानते हैं और इससे लोकतंत्र का नुकसान होगा ऐसा उनका मानना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुछ विरोधी भी ऐसा समझते हैं कि मोदी एक व्यक्ति के रूप में इतने ताकतवर और इतने मशहूर हो चुके हैं कि वे सबसे लोकप्रिय भी बन सकते हैं, और इसका नुकसान बाकी नेताओं और पार्टियों को राज्य और म्युनिसिपल-पंचायत के स्तर पर भी हो सकता है। आज भारत के संविधान में ऐसे एकमुश्त चुनाव की व्यवस्था नहीं है, लेकिन इस पर विचार और चर्चा पहले भी चलते रहे हैं। इसके हिमायतियों का यह मानना है कि इससे चुनावी खर्च घटेगा, और सरकारी अमला भी इन तीनों चुनावों में अलग-अलग व्यस्त रहने के बजाय अपने सरकारी काम पर ध्यान दे सकेगा।
हम किसी व्यक्ति की लोकप्रियता या संभावना को देखे बिना, उसके एक कामयाब तानाशाह बन जाने की आशंका को देखे बिना अगर ऐसे चुनाव की कल्पना करते हैं, तो वह आज के बिखरे हुए चुनावों के मुकाबले बेहतर लगती है। इसकी एक वजह यह है कि चुनाव खर्च और इंतजाम में भारी किफायत से परे भी एक दूसरी किफायत और होगी। आज देश में चुनाव की वजह से सत्तारूढ़ पार्टी इस बुरी तरह लोगों को खुश करने के लिए सरकारी खजाने से तोहफे बांटती है, वह कुल मिलाकर जनता के ही खजाने की ही एक बड़ी बर्बादी होती है। म्युनिसिपल हो या केंद्र सरकार, उसके निर्वाचित लोगों के सामने चुनाव के पहले के आखिरी साल यह बहुत बड़ी चुनौती रहती है कि वे दुबारा जीतकर कैसे आएं। इसलिए राजनीतिक दल अपने नियंत्रण की इन तीनों सरकारों, केंद्र सरकार, राज्य सरकार, और म्युनिसिपल-पंचायत, इन तीनों के सारे बजट, और इसकी सारी क्षमता का इस्तेमाल चुनावी-प्राथमिकताओं के मुताबिक करते हैं।
एक साथ चुनाव होने से यह जरूरी भी नहीं है कि राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय नेता की पार्टी को राज्य स्तर पर और शहर-पंचायत स्तर पर भी कामयाबी मिल जाए। इस देश के पहले के कुछ ऐसे चुनाव भी रहे हैं जिनमें वोटर ने एक साथ संसद और विधानसभा के लिए वोट दिए, और केंद्र के लिए उसने एक पार्टी का सांसद चुना और राज्य विधानसभा के लिए दूसरी पार्टी का विधायक चुना। लेकिन ऐसा कोई भी फैसला बड़े व्यापक महत्व का होगा, और इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को चुनाव आयोग के साथ मिलकर देश के लोगों के बीच विचार-विमर्श और बहस का एक सिलसिला शुरू करना चाहिए। जिन लोगों ने एक साथ चुनाव की ऐसी सोच के खिलाफ लिखा है, उनके तर्कों पर भी सोचना चाहिए।