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कर्तव्य पथ पर बाबुओं की “गोपनीय” व्यथा : जब केबिन गया, तो दिल भी टूटा

नई दिल्ली के चमचमाते कर्तव्य भवन में जब प्रधानमंत्री मोदी ने उद्घाटन किया, तो सरकार ने इसे प्रशासनिक कुशलता और सहयोग की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम बताया। लेकिन उसी पल, बाबू बिरादरी के दिलों में एक सन्नाटा उतर आया — क्योंकि वहां केबिन नहीं थे, सिर्फ खुली जगहें थीं।

जी हां, देश बदल रहा है। लेकिन दिल्ली की फाइल संस्कृति वाले दफ्तरों में अब भी वह दरवाजा खटकता है, जिस पर बाबू अंदर से “थोड़ा वेट कर लीजिए” कहता है। अब उस दरवाजे की जगह कम ऊंचाई वाली अलमारियों ने ले ली है। और बाबू कह रहे हैं — “ये गोपनीयता का अपमान है!”

CSS फोरम की चिट्ठी: ‘हम Homo Derelictus हैं, हमारी भी भावनाएं हैं’
सेंट्रल सेक्रेटेरिएट सर्विस (CSS) फोरम ने प्रधानमंत्री कार्यालय को चिट्ठी लिखी है। पत्र में भावनाओं का सैलाब है। गोपनीयता गई, सम्मान गया, और साथ ही एक वह माहौल भी, जिसमें बाबू लोग बिना किसी रुकावट के “फुसफुसा” सकते थे।

“हम संवेदनशील फाइलें हैंडल करते हैं, सीक्रेट कॉल करते हैं, और हमें खुली जगहों में बैठाकर हमें हमारे ही अस्तित्व से दूर किया जा रहा है,” पत्र में कहा गया।

कर्तव्य भवन, जो कि एक आधुनिक कॉम्प्लेक्स है, अब एक ‘open office’ कल्चर को बढ़ावा दे रहा है। मगर CSS कहता है — “बाबूशाही में खुलापन नहीं चलता। ये तो एक बंद डब्बे में ही पनपती है।”

बाबू बनाम आधुनिकता: टकराव तय है

सरकार का कहना है कि यह परिवर्तन मंत्रालयों को एक छत के नीचे लाकर इंटर-डिपार्टमेंटल कोऑर्डिनेशन को बेहतर बनाएगा। लेकिन बाबू पूछते हैं — “हमारी बातचीत कौन-कौन सुनेगा?” और शायद मन ही मन यह भी सोचते हैं — “हम जूनियर स्टाफ के साथ कैसे बैठ सकते हैं? हमारी एक अलग सोशल क्लास है।”

यह बात सच है कि भारतीय समाज में बाबुओं की एक अलग ‘कास्ट’ बन गई है — जो दहेज चार्ट में सबसे ऊपर होती है, और whose aura depends on closed doors and confidential files.

‘लाल फीताशाही’ और ‘केबिन’ का पुराना रिश्ता

दरअसल, यह कोई सीट का मसला नहीं है, यह सत्ता के प्रतीक का सवाल है। केबिन सिर्फ लकड़ी की दीवारें नहीं हैं, ये एक पूरा ‘पावर आउरा’ बनाते हैं। बिना उसके बाबू अधूरा लगता है — न फाइलों पर रौब जमता है, न ही कॉल्स पर सीक्रेसी बचती है।

लेकिन बदलती दुनिया में ये सब आउटडेटेड माना जा रहा है। आधुनिक ऑफिस कल्चर में पारदर्शिता, सहयोग और खुलेपन को बढ़ावा दिया जा रहा है।

कर्तव्य बनाम हक : बदलाव की लड़ाई

बाबुओं का यह आक्रोश समझा जा सकता है — लेकिन अब समय आ गया है कि वे कर्तव्य पथ पर चलें, हक के पथ पर नहीं। नई व्यवस्था में उनकी दक्षता, गोपनीयता और गरिमा को बनाए रखने के लिए टेक्नोलॉजी और डिज़ाइन की मदद ली जा सकती है — लेकिन इसके लिए सोच का दरवाजा खोलना होगा, न कि सिर्फ ऑफिस के केबिन का।

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