दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय, 25 अक्टूबर : कामयाबी और शोहरत के मिलेजुले जानलेवा नशे की एक मिसाल, और उसकी ठीक उलटी मिसाल भी
कामयाबी का नशा ऐसा होता है कि वह सिर चढ़कर बोलता है। बहुत से लोग कहते हैं कि कामयाबी पाना जितना मुश्किल होता है उससे अधिक मुश्किल होता है सिर पर चढ़ बैठी कामयाबी पर काबू रख पाना। दूसरी तरफ कुछ ऐसा ही शोहरत के साथ भी होता है, बहुत से लोग शोहरत को जिंदगी भर की दौलत मानकर उसके नशे में बदसलूकी पर उतर आते हैं। और जब कामयाबी और शोहरत इन दोनों का मेल होता है, तो दो अलग-अलग और अटपटे नशों के मेल की तरह यह बहुत अधिक घातक भी हो सकता है। इन दोनों का नशा जब एक साथ चढ़े, तब पांव सम्हाल पाना बड़ा मुश्किल होता है। सार्वजनिक जीवन में जो लोग रहते हैं, वे पूरे वक्त मानो घरों में सजने वाले एक्वेरियम की तरह, उसके भीतर मछली की तरह जीते हैं, और ऐसे नशे में लडख़ड़ाते हुए पांव लोगों को साफ दिखने लगते हैं।
यह चर्चा जरूरी इसलिए है कि जिंदगी के अलग-अलग दायरों में बहुत से लोग कामयाब होते हैं, और उनमें से कुछ लोग मशहूर भी हो जाते हैं जिनकी शोहरत चारों तरफ फैलने लगती है। ऐसे लोगों का अपना दायरा भी ऐसा हो जाता है जो कि उनके पांव जमीन पर नहीं पडऩे देता। और दुनिया की कुछ बड़ी-बड़ी टूरिस्ट जगहों पर जिस तरह आसमान को छूते हुए रोलर-कोस्टर रहते हैं, उन पर ऊपर जाते हुए जैसा लगता है, कुछ वैसा ही नशा कामयाबी और शोहरत के मिलने से बनता है। लेकिन पूरी ऊंचाई पर पहुंचने के बाद रोलर-कोस्टर की सीटों पर बंधे हुए लोग जिस रफ्तार से धरती की तरफ नीचे गिरते हैं, कुछ वैसा असल जिंदगी में भी होता है। लोगों को कामयाबी और शोहरत के वक्त अपना सिर जिस तरह काबू में रखना चाहिए और अपने पैर जिस तरह जमीन पर टिकाए रखना चाहिए, इसकी एक अच्छी मिसाल पिछले दिनों सामने आई है।
हिन्दुस्तानी टीवी पर कुछ बरसों के भीतर कॉमेडियन कपिल शर्मा की शोहरत इस रफ्तर से आसमान पर पहुंची, और कामयाबी ने उनको रातों-रात ऐसा बना दिया कि वे 15 करोड़ रूपए इंकम टैक्स देने की ट्वीट करने लगे। लेकिन इस नशे के साथ एक अंतरराष्ट्रीय उड़ान पर उन्होंने अपने साथी कलाकारों से जिस तरह की बदसलूकी की, उससे वे धड़ाम से जमीन पर आ गिरे, और आज की तारीख में कोई उन्हें छूने को भी तैयार नहीं दिखता। सबसे बड़ी कामयाबी के बावजूद बहुत से साथी कलाकार उनके साथ काम करने को तैयार नहीं हैं। राजनीति में भी ऐसा ही होता है, कई लोग चुनावी कामयाबी पाते हैं, और शोहरत इतनी मिलती है कि लोग उनको पूरी जिंदगी के लिए उस ओहदे का हकदार मानने लगते हैं। और ऐसे ही वक्त पर लोग बदगुमानी और बददिमागी में गलत फैसले लेने लगते हैं, उन्हें लगता है कि वे अकेले सबसे अधिक कामयाब हैं। यह बात सही है कि कामयाबी के साथ बहस नहीं होती, और शोहरत का शोर सही बातों को सुनने की ताकत भी छीन लेता है। ऐसे में लोग अपने आपको हमेशा का बादशाह मानकर मनमानी करने लगते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह बात याद पड़ती है जो कि कोई समझदार बुजुर्ग कभी लिख गया है-
तुमसे पहले वो जो इक शख्स यहां तख्तनशीं था,
उसको भी अपने खुदा होने पे इतना ही यकीं था…
हमारी यह नसीहत बहुत अधिक काम की नहीं होती है, क्योंकि कबीर की जुबान में जिन्हें निंदक नियरे राखिए की नसीहत दी गई थी, उसके चापलूसों और मुसाहिबों ने सबसे पहले अपने घेरे से निंदकों को ही मार-मारकर भगाया था। जब तक ऐसे लोग करीब रहें, तब तक बददिमागी घेरे में दाखिल नहीं होती है। ऐसे सवालिया लोगों को निकालने के बाद जो बचता है, वह कामयाबी और शोहरत के मिले-जुले जानलेवा नशे को बढ़ाने वाला रहता है। हमने ऊपर कपिल शर्मा की मिसाल दी है, लेकिन उसकी ठीक उलटी भी एक मिसाल हमारे पास है, जो कि उससे भी बड़ी है। आसमान को छूती हुई कामयाबी, और पूरी धरती पर फैली हुई सी शोहरत ने मिलकर भी अमिताभ बच्चन को बददिमाग बनाने में कामयाबी नहीं पाई है। अमिताभ के मुंह से किसी के बारे में बदजुबानी किसी ने सुनी नहीं होगी, उनको बदसलूकी करते किसी ने देखा नहीं होगा। इसलिए सीखना हो तो इन दोनों मिसालों को देखकर कुछ सीखा जा सकता है।