संपादकीय

अंतर्विरोधों में उलझी कर्नाटक की गुत्थी

पुष्परंजन की कलम से,

पांच साल पहले 2013 में बीएस येदियुरप्पा ने लिंगायत को अल्पसंख्यक बनाने का प्रतिवेदन जब केंद्र सरकार को भेजा था, तब क्या हिंदू समाज को बांटने की चेष्टा नहीं हुई थी? इस समय केंद्र सरकार के लिए कर्नाटक में चुनाव की घोषणा राहत वाली है. लिंगायत को अल्पसंख्यक समुदाय मानने के सवाल पर यह कहने को हो गया कि हम इसकी समीक्षा कर रहे थे, तब तक चुनाव की घोषणा हो गई। सोमवार को अमित शाह सिद्धगंगा मठ के धर्मगुरु श्री श्री श्री शिवकुमार स्वामिगलू के चरणों में मत्था टेकने गये थे। करीब 110 साल के शिवकुमार स्वामिगलू को कर्नाटक में ‘नद्देदुआ देवरू’ यानी चलते-फिरते भगवान कहा जाता है। मगर, ‘भगवान’ अब चल-फिर नहीं सकते। अलबत्ता, उनके इशारे पर लाखों लिंगायत वोट सत्ता के समीकरण बदल सकते हैं। इस वजह से ‘बीजपी के चाणक्य’ उनकी चौखट तक चलकर आये। अमित शाह ने बयान दिया, ‘साक्षात भगवान के दर्शन हो गये.

12वीं सदी में समाज सुधारक व धर्मगुरु बसवण्णा ने कर्मकांड, मूर्ति पूजा, सती प्रथा जैसे आडंबरों से मुक्ति दिलाने का अभियान लिंगायतों के ज़रिये छेड़ा था। उस समय भी धर्मगुरु बसवण्णा भगवान घोषित नहीं हुए। तब वीरशैव समुदाय का भी आविर्भाव हुआ था। वीरशैव को इष्टलिंग अर्पित कर कान में पवित्र षड्अक्षर मंत्र ‘ओम नम: शिवाय’ फूंक देने की परंपरा है। आम मान्यता है कि वीरशैव और लिंगायत एक ही समुदाय के लोग हैं, मगर लिंगायत समुदाय के लोग ऐसा नहीं मानते। लिंगायत शिव की पूजा नहीं करते। लिंगायत देव पूजा, सती प्रथा, जातिवाद, महिलाओं के अधिकारों के हनन आदि को ग़लत मानते हैं। इसलिए लिंगायत अपने समाज को हिंदू धर्म से भी अलग मानते हैं।
लिंगायत राजनीति को मात्र एक मठ नियंत्रित कर रहा हो, ऐसा भी नहीं है। उदाहरण के लिए हंगल मठ है। इस मठ ने ‘अखिल भारतीय वीरशैव महासभा’ का गठन कर लिंगायत-वीरशैव चेतना जगाने की शुरुआत की थी। इसी महासभा ने 1904 में एक प्रस्ताव के ज़रिये वीरशैव और लिंगायत को हिंदू घोषित किया था। कुछ साल बाद लिंगायत इस प्रस्ताव का विरोध करने लगे। 1940 में इसी महासभा ने एक और प्रस्ताव पास करते हुए घोषणा की कि लिंगायत हिंदू नहीं हैं। धारवाड़ में एक मुरूगा मठ है, जिसकी स्थापना 17वीं सदी में हुई थी। मैसूर से कोल्हापुर के रजवाड़ों, मुस्लिम नवाबों तक मुरूगा मठ का रसूख रहा है। वोट की राजनीति के वास्ते राहुल गांघी भी इस मठ के दर्शन कर आये.

अमित शाह मुरूगा मठ भी गये। वहां शिव शरणा मादरा गुरु पीठा श्री मादरा चंद्र स्वामी को बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ाना है। पूरे कर्नाटक में दो दर्जन से अधिक ऐसे मठ हैं जो लिंगायत वोट को नियंत्रित करने का दावा करते हैं। यह ध्यान में रखने की बात है कि 2013 के चुनाव में कांग्रेस के जो 122 विधायक चुने गये थे, उनमें 40 विधायक लिंगायत समुदाय के रहे हैं। लिंगायत उत्तरी और दक्षिणी कर्नाटक की प्रभावशाली जातियों में से है.

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सत्तर के दशक तक लिंगायत दूसरी खेतिहर जाति वोक्कालिंगा के साथ सत्ता का बंटवारा करते रहे थे। रामकृष्ण हेगड़े की वजह से लोकसभा चुनाव में लिंगायतों के वोट बीजेपी को मिले और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी। रामकृष्ण हेगड़े के निधन के बाद लिंगायतों ने बीएस येदियुरप्पा को अपना नेता चुना और 2008 में वे सत्ता में आये। भ्रष्टाचार के आरोप में येदियुरप्पा को जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तो 2013 के चुनाव में लिंगायतों ने बीजेपी से इस अपमान का बदला लिया। उस क्रम में कांग्रेस ने लिंगायत समुदाय के लोगों को सर्वाधिक टिकट बांटे.

करीब 6.11 करोड़ की आबादी वाले कर्नाटक में दलित 1.08 करोड़ हैं, मुस्लिम 75 लाख के आसपास हैं, लिंगायत लगभग 59 लाख और वोक्कलिंगा 49 लाख हैं। उसके बाद आठ प्रतिशत आबादी वाले कुरूबा जाति के लोग हैं जो पशुपालन से जुड़े हैं। किसी को जिज्ञासा हो सकती है कि आबादी के हिसाब से तीसरे नंबर पर लिंगायत कर्नाटक की सत्ता का एपीसेंटर कैसे बन बैठे? उसका सबसे बड़ा कारण इनका संपन्न और संगठित होना रहा है। कर्नाटक के अधिकांश शिक्षण संस्थानों, मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेजों, अस्पताल, होटल कारोबार, खनन, कृषि, अधोसंरचना के कारोबार पर लिंगायत समुदाय के लोगों का कब्ज़ा रहा है। ऐसे कारोबारी जब अल्पसंख्यक घोषित किये जाएंगे तो निश्चित रूप से उनके द्वारा नियंत्रित शिक्षा व स्वास्थ्य का कारोबार कर-छूट व विभिन्न सुविधाओं की परिधि में आ जाएगा।
कर्नाटक में अल्पसंख्यक कार्ड का अर्थशास्त्र, धर्म की आड़ में किस तरह काम कर रहा है, इस बारीकी पर बाहर वालों का ध्यान कम ही जाता है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया इस ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ को भली-भांति समझते हैं, तभी 22 दिसंबर 2017 को एक सात सदस्यीय आयोग का गठन अवकाश प्राप्त जज नागमोहन दास की अध्यक्षता में कर दिया। नागमोहन दास आयोग ने अपनी रिपोर्ट 2 मार्च, 2018 को सौंप दी। इस आयोग के पास 62 प्रतिवेदन आये थे.

यह अपने आप में रिकार्ड है कि मात्र 71 दिनों के भीतर इस आयोग ने रिपोर्ट सौंपी है। 6 जनवरी को जस्टिस नागमोहन दास का दिया बयान दिलचस्प है, जिसमें उन्होंने कहा था कि चार हफ्ते में इतने विवादास्पद विषय पर रिपोर्ट देना असंभव है। इसमें कम से कम छह माह लगेंगे। फिर ऐसा क्या हुआ कि 71 दिनों में यह रिपोर्ट तैयार हो गई? अमित शाह ने इस पर शक की सूई घुमाई है, तो ग़लत क्या है?
मगर, क्या केवल लिंगायत कार्ड से कर्नाटक का रण जीता जा सकता है? कौन हो सकता है कर्नाटक का कटप्पा? सिद्धारमैया का खेल बिगाडऩे के वास्ते देवेगौड़ा की पार्टी ‘जेडीएस’ को एक बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। 224 सीटों वाली कर्नाटक विधानसभा में 37 विधायकों की संख्या वाली जेडीएस को बिना पेंदी का लोटा कहना उचित होगा.

2004 में बीजेपी 79 सदस्यों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। 65 सदस्यों वाली कांग्रेस ने जेडीएस के 58 विधायकों के साथ मिलकर बीजेपी का गेम बजा दिया। कांग्रेस की सरकार 2006 में जेडीएस के समर्थन वापसी के साथ गिर गई। उसके बाद जेडीएस के नेता एचडी कुमारास्वामी बीजेपी के समर्थन से कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने, अक्तूबर 2007 में यह दुरभि संधि भी समाप्त हो गई। यह दिलचस्प है कि बेंगलुरु में 2015 के पालिका चुनाव में जेडीएस-कांग्रेस का गठबंधन रहा है। अब यही जेडीएस, बसपा को 20 सीट देकर गठबंधन के नये समीकरण बैठा रही है। इन लोगों ने शरद पवार तक को आईने में उतार लिया है। इसी से अंदाज़ा लगा लीजिए, कर्नाटक का कटप्पा कौन है!

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