खतरे की आहट – वरिष्ठ पत्रकार सौरभ तिवारी की फेसबुक वॉल से
इस साल जिन राज्यों में भाजपा सरकार के कामकाज का मूल्यांकन वोटों के जरिए होने वाला है उसमें मध्यप्रदेश भी शामिल है। लगातार तीन पंचवर्षीय कार्यकाल के बाद चुनाव में जाना किसी भी सरकार के लिए अग्निपरीक्षा से कम नहीं होता । 29 नवंबर 2005 को पहली बार मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल का ये तेरहवां साल चल रहा है। अनिष्टकारी अंक के रूप में बदनाम इस तेरहवें साल में शिवराज को चुनावी जंग में उतरना है। लेकिन इस बार हालात उनके पिछले दो कार्यकाल से काफी जुदा हैं।
2008 में शिवराज की अगुवाई में हुए चुनाव में भाजपा ने 230 में से 143 सीटें जीती थीं। 2013 में शिवराज का जादू फिर सिर चढ़कर बोला और भाजपा ने 230 में 165 सीटों पर झंडा गाड़ दिया यानी पिछले चुनाव से 22 सीटें ज्यादा। लेकिन इस बार जैसे हालात हैं उससे शिवराज के सामने चुनौती सीटों की बढ़त बरकरार रखने से ज्यादा अपनी सरकार बचाने की नजर आ रही है। आज प्रदेश की 6 नगरपालिका और 13 नगर पंचायतों के नतीजों में उसी खतरे की आहट छिपी है। नगर पालिका की 6 में से 4 सीटों पर कांग्रेस ने कब्जा करके भाजपा को तगड़ा झटका दिया है। वहीं नगर पंचायत में भाजपा ने 7-5 से बढ़त तो बनाई लेकिन यहां भी कांग्रेस ने भाजपा को पानी पिला दिया। नगरीय निकायों के ये नतीजे दो कारणों से खास रहे, पहला ये कि इनमें से अधिकांश वो नगरीय निकाय हैं जिन्हें कांग्रेस ने भाजपा से छीना है और दूसरा ये कि हारने वाली सीटों में वो भी शामिल हैं जहां खुद मुख्यमंत्री ने चुनावी सभाएं और रोड शो किए थे। शिवराज ने नाली-नरदा के मुद्दे पर लड़े जाने वाले चुनाव में प्रचार की कमान संभाल कर मुख्यमंत्री पद की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाया था तो जाहिर तौर पर असंतोषजनक नतीजों की जिम्मेदारी भी अब उन्हें ही लेनी पड़ेगी।
तो क्या ये माना जाए कि शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता अब ढलान पर है? भाजपाइयों को शिवराज की लोकप्रियता में गिरावट का ये आकलन भले रास नहीं आए लेकिन चित्रकूट में मात मिलने के बाद नगरीय निकायों में खराब परफारमेंस के परिप्रेक्ष्य में ये आशंका नाहक नहीं है। दरअसल शिवराज के तीसरे कार्यकाल में विवादों और आरोपों का साया रहा है। व्यापमं, डीमेट, सिंहस्थ,सुगनीदेवी भूमि, डम्पर, एनआरएचएम, प्याज खरीदी, छात्रवृत्ति जैसे घोटालों की लंबी फेहरिश्त से उनकी विश्वसनीयता पर आंच आई है। जांच पूरी होने तक इन घोटालों की प्रमाणिकता भले संदेह के दायरे में हो लेकिन विपक्ष अपने आरोपों से शिवराज की साख को संदेही बनाने में सफल रहा है। वैसे भी सियासत में प्रमाणिकता से ज्यादा परसेप्शन की अहमियत किसी से छिपी नहीं है।
घोटालों ने साख पर बट्टा लगाया तो कर्मचारी और किसान आंदोलनों ने सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में भूमिका निभाई है। हालांकि चुनाव से पहले सरकार पर दबाव बनाने के लिए आंदोलनों की पुरानी परिपाटी रही है, लेकिन शिवराज के तीसरे कार्यकाल में ये आंदोलन भाजपा के लिए सिरदर्द साबित हो रहे हैं। अगर मान भी लें कि सरकार के खिलाफ उठ रही आवाज के पीछे विपक्ष की सियासी तिकड़मबाजी जिम्मेदार है तो इस जवाब से फिर एक सवाल पनपता है कि इसका समाधान और तोड़ निकालने में सरकार नाकाम क्यों साबित हो रही है?
"कुल मिलाकर विधानसभा चुनाव से 8 महीने पहले हुए नगरीय निकायों के इन नतीजों ने जहां कांग्रेस को उत्साह से भर दिया है, वहीं भाजपा को आगाह किया है। ख्याल रहे कि विधानसभा चुनाव में शिवराज का मुकाबला उस कांग्रेस से नहीं होगा जिसे अब तक वो मात देते आए हैं। ये तय मानिए कि राहुल के रूपांतरण और गुजरात चुनाव में मोदी-शाह की जोड़ी को कड़ा मुकाबला देने वाली कांग्रेस से निबटना भाजपा के लिए काफी टेढ़ी खीर साबित होने वाला है। नगरीय निकाय चुनाव के नतीजे भी भाजपा को उसी खतरे की ताकीद कर रहे हैं।"
– सौरभ तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार