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चीन से दोस्ती, अमेरिका से दूरी? एससीओ बैठक से पहले चीनी राजदूत का बयान चर्चा में

शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की अहम बैठक से पहले एक राजनयिक बयान ने नई बहस को जन्म दे दिया है। भारत में तैनात चीन के राजदूत शू फ़ेहॉन्ग ने अमेरिकी टैरिफ़ के खिलाफ़ दिल्ली से आवाज़ बुलंद की है — और वो भी ऐसे वक़्त में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद चीन की यात्रा पर जा रहे हैं।

शू फ़ेहॉन्ग ने अमेरिका की आर्थिक नीतियों पर निशाना साधते हुए भारत को ‘मज़बूती से’ चीन के साथ खड़े रहने की सलाह दी है। उनका कहना है, “चुप्पी या समझौता करने से धौंस जमाने वालों का हौसला बढ़ता है।” उनका इशारा स्पष्ट रूप से अमेरिका की ओर था, जिसने हाल ही में भारत पर 50 प्रतिशत तक का टैरिफ़ लगाने की घोषणा की है, जो 27 अगस्त से लागू होंगे।

तीसरे देश पर टिप्पणी, और वो भी भारत से?

राजनयिक हलकों में इस बयान को असामान्य माना जा रहा है, क्योंकि किसी तीसरे देश — खासकर अमेरिका — को लेकर किसी विदेशी राजदूत का इस तरह सार्वजनिक रूप से भारत से बयान देना आम बात नहीं है। लेकिन शू फ़ेहॉन्ग यहीं नहीं रुके।

उन्होंने अमेरिका को ‘धमकाने वाला देश’ बताते हुए कहा कि वह मुक्त व्यापार के नाम पर सालों से फ़ायदा उठाता रहा है, लेकिन अब टैरिफ़ को सौदेबाज़ी का हथियार बना चुका है। उनका कहना है कि भारत और चीन को एशिया का ‘डबल इंजन’ बनकर दुनिया के लिए आर्थिक स्थिरता और विकास की दिशा तय करनी चाहिए।

कूटनीति या दबाव?

इस बयान का समय भी खासा अहम है। कुछ ही दिन में प्रधानमंत्री मोदी चीन में होने वाली एससीओ बैठक में हिस्सा लेने जा रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है — क्या यह बयान भारत के रुख को प्रभावित करने की कोशिश है?

जहाँ एक ओर चीन अमेरिका से टैरिफ़ युद्ध में उलझा हुआ है, वहीं भारत जैसे देशों का समर्थन उसे वैश्विक मंचों पर ताक़त देता है। यही वजह है कि चीन अब अपने कूटनीतिक सहयोग को “मुक्त व्यापार के समर्थन” के लिबास में पेश कर रहा है।

अमेरिका की चुप्पी, भारत की कूटनीतिक चुनौती

फिलहाल अमेरिका की ओर से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है। लेकिन भारत के लिए यह एक नाज़ुक कूटनीतिक पल है। एक ओर वह चीन के साथ व्यापार और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए जुड़ना चाहता है, तो दूसरी ओर अमेरिका के साथ उसकी रणनीतिक साझेदारी भी गहराई ले रही है।

ऐसे में देखना होगा कि प्रधानमंत्री मोदी चीन की धरती पर क्या संकेत देते हैं — क्या वो राजनयिक संतुलन साध पाएंगे, या चीन की इस ‘दोस्ती की पेशकश’ के पीछे छिपे दबाव को नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं होगा?

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