हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: हिरासत में मौत को लोकतंत्र और मानवता पर चोट माना, पुलिसकर्मियों की सजा में संशोधन

रायपुर। हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने एक बेहद संवेदनशील मामले में अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हिरासत में हुई मौत सिर्फ कानून का उल्लंघन नहीं, बल्कि लोकतंत्र और मानव अधिकारों पर गहरा प्रहार है। जब सुरक्षा करने वाले ही उत्पीड़क बन जाएं, तो समाज के लिए यह सबसे बड़ा खतरा है।
इस गंभीर टिप्पणी के साथ, जस्टिस संजय अग्रवाल और जस्टिस दीपक कुमार तिवारी ने जांजगीर-चांपा जिले के मुलमुला थाने के थाना प्रभारी सहित चार पुलिसकर्मियों को उम्रकैद की सजा से राहत देते हुए, उनकी सजा को 10 वर्ष के कठोर कारावास में बदल दिया। कोर्ट ने यह माना कि हिरासत में हुई मौत गैरइरादतन हत्या की श्रेणी में आती है।
मामला क्या है?
2016 में ग्राम नरियरा के निवासी सतीश नोरगे को शराब पीकर उत्पात मचाने के आरोप में पुलिस ने हिरासत में लिया था। कुछ ही घंटों में उसकी मौत हो गई, जिससे इलाके में भारी तनाव और प्रदर्शन हुए। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में सतीश के शरीर पर 26 जगह चोट के निशान पाए गए, जिससे पुलिसकर्मियों पर हत्या का केस दर्ज किया गया।
कोर्ट का फैसला और न्याय की दिशा
विशेष कोर्ट ने 2019 में सभी आरोपियों को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी, लेकिन आरोपियों ने हाईकोर्ट में अपील की। सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने पाया कि हत्या की मंशा स्पष्ट नहीं थी, हालांकि आरोपी पीट-पीट कर गंभीर चोटें पहुंचाने के बारे में जानते थे। इसलिए सजा को धारा 304 (गैरइरादतन हत्या) के तहत 10 साल कठोर कारावास में बदला गया।
एससी-एसटी एक्ट से भी मिली राहत
कोर्ट ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि पुलिसकर्मियों को मृतक की अनुसूचित जाति से होने की जानकारी थी। इसलिए एससी-एसटी एक्ट की धाराएं हटाकर थाना प्रभारी को इस आरोप से मुक्त कर दिया गया।
आगे की कार्रवाई क्या होगी?
चारों पुलिसकर्मी 2016 से जेल में हैं। हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद उनकी सजा की अवधि घटाई गई है और वे बची हुई सजा पूरी करेंगे। डिवीजन बेंच ने जेल अधीक्षक को फैसला भेजकर कार्रवाई सुनिश्चित करने के निर्देश दिए हैं।