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मटाल में मौत का मिशन, गरियाबंद में नक्सलवाद पर सबसे बड़ा वार

रायपुर। 10 सितंबर की दोपहर गरियाबंद पुलिस के टेक्निकल सेल की स्क्रीन पर एक सटीक लोकेशन पिंग उभरती है। यह सामान्य जानकारी नहीं थी, बल्कि पिछले चार महीनों की थकी-हारी तलाश का आखिरी सुराग। सूचना यह कि कुख्यात नक्सली मनोज उर्फ मोडेम बालकृष्णा और उसके साथी मैनपुर ब्लॉक के मटाल पहाड़ियों में डेरा जमाए बैठे हैं।

बालकृष्णा — ओडिशा और छत्तीसगढ़ की सीमा पर आतंक का दूसरा नाम। सीपीआई (माओवादी) की सेंट्रल कमेटी का सदस्य। उस पर अकेले 1.80 करोड़ का इनाम था। उसकी मौजूदगी की पुष्टि होना मतलब, एक ऐसा मौका जो सालों में एक बार मिलता है।

एसपी और रायपुर रेंज के IG अमरेश मिश्रा के हाथों में जैसे मानो सोने की चाबी आ गई थी। तुरंत एक वार रूम सक्रिय हुआ। नक्शे खोले गए, वायरलेस गूंजने लगे। फैसला हुआ – दुश्मन के गढ़ में घुसकर इस खेल का अंत करना है।

और फिर रात तक योजना बन चुकी थी:

10 टीमें,

400 से ज्यादा जवान,

बारिश, अंधेरे और पहाड़ों के बीच घुसपैठ

किन्हीं फिल्मों की तरह, सबको अलग-अलग रास्तों से रवाना किया गया। जंगल की नमी में जूतों की चरमराहट दबा दी गई। हथियारों पर कपड़े कसकर लपेटे गए ताकि आवाज न हो। मटाल पहाड़ी की तलहटी घेरने की रणनीति तैयार थी।

दूसरा सीन: बरसात, अंधेरा और पहला धमाका
11 सितंबर की रात घिरने लगी थी। आसमान से लगातार बारिश बरस रही थी। जंगल की पगडंडियों पर फिसलन थी। हर कदम पर पैर उचकाकर बढ़ाना पड़ रहा था। जवानों के कपड़े भीग गए थे, लेकिन हौसला गीला नहीं हुआ।

जैसे ही जवान पहाड़ी को चारों ओर से घेरने की स्थिति में पहुंचे, तभी नक्सलियों को भनक लग गई। अचानक हवा में गोलियों की आवाज गूंजी – ढाँय… ढाँय…।

जवानों ने तत्काल जमीन पकड़ ली। टॉर्च बंद, आंखें अंधेरे में चमकती। जवाबी फायरिंग शुरू हो गई। गोलियों की लकीरें काली रात को चीरने लगीं।

मुट्ठी भर नक्सली, लेकिन संख्या से नहीं डरते। उन्होंने एकाएक धमाका किया। विस्फोट से हवा कांप उठी। बारिश की बौछारों और धरती की गूंज के बीच जवानों के सामने चुनौती दोगुनी हो चुकी थी।

वार रूम में बैठे अफसर लगातार वायरलेस पर संपर्क में थे। हर अपडेट उन्हें मिल रहा था। “पोजिशन संभाले रहो, एनकाउंटर जारी रखो, चारों ओर से घेराबंदी बरकरार रखो” – आदेश और हौसला, दोनों साथ-साथ जा रहे थे।

तीसरा सीन: लंबी रात और जीत का उजाला
पूरी रात गोलियां चलती रहीं। जवानों ने एक-एक इंच जमीन पकड़े रखा। नक्सली ताकत झोंकते रहे, लेकिन जवानों की रणनीति लोहे जैसी मजबूत थी।

जैसे ही सुबह की पहली किरण पेड़ों की शाखों से झांकी, एक बार फिर फायरिंग शुरू हो गई। इस बार नक्सलियों का हौसला कमजोर पड़ा। वे घबराकर भागने लगे। जंगल के रास्तों में अंधाधुंध दौड़ते हुए कई मारे गए।

जब ऑपरेशन खत्म हुआ और सन्नाटा टूटा तो जवानों ने पहाड़ी पर तलाशी अभियान शुरू किया। जमीन पर पड़ी थीं 10 लाशें। इनमें सिर्फ साधारण कैडर नहीं, बल्कि शीर्ष नेतृत्व छिपा था—

मनोज उर्फ मोडेम बालकृष्णा – सेंट्रल कमेटी का सदस्य, ओडिशा स्टेट कमेटी का मास्टरमाइंड।

प्रमोद – ओडिशा कैडर का अहम लीडर, 1.20 करोड़ का इनामी।

विमल – तकनीकी टीम का सदस्य, रेडियो और बम बनाने का एक्सपर्ट।

इनकी मौत मतलब, वर्षों से फैला हुआ नेटवर्क चरमराने लगा। अब ओडिशा कमेटी में केवल एक सीसी मेंबर गणेश उईके बचा था।

चौथा सीन: 8 महीने का लंबा सफर और गिरता साम्राज्य
यह ऑपरेशन अचानक नहीं हुआ। पिछले आठ महीने में गरियाबंद पुलिस का अभियान लगातार चल रहा था।

अब तक 28 नक्सली मारे गए।

21 नक्सलियों ने हथियार डाल दिए।

दो सीसी मेंबर पहले ही ढेर हो चुके थे।

स्टेट कमेटी के सात में से चार सदस्य मारे जा चुके हैं। जोनल मिलिट्री कमेटी के दो में से एक सत्यम गावड़े भी इसी इलाके में मार गिराया गया।

नक्सलियों की ताकत जिन कमेटियों पर टिकी थी, उनमें से सबसे बड़ी सुना बेड़ा एरिया कमेटी भी अब कमजोर हो चुकी है। सुरक्षा बलों का दावा है कि लगभग 70 प्रतिशत नेटवर्क धराशायी हो गया है।

पांचवां सीन: जश्न और मनोबल
ऑपरेशन खत्म होने के बाद जब जवान लौटे, उनके हाथों में थकी हुई लेकिन गर्व से भरी मुठ्ठियाँ थीं। उन्होंने हथियार उठाकर विजय का नारा लगाया। जिन जंगलों में अक्सर नक्सली खौफ का साया फैलाते थे, वहीं अब सुरक्षा बलों की जीत गूंज रही थी।

IG अमरेश मिश्रा का कहना सही है—गरियाबंद नक्सलियों के लिए सुरक्षित अड्डा माना जाता था, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। सरप्राइज ऑपरेशनों, मुखबिर नेटवर्क और तकनीक की मदद से जो काम पहले असंभव लगता था, वही अब सफलता की सीढ़ी बन चुका है।

अंतिम सीन: एक फिल्म जैसा अंत, लेकिन असली जिंदगी में
अगर यह फिल्म होती तो पर्दे पर बड़े अक्षरों में चमकता — “The End”। लेकिन यह असली जिंदगी है, जहां हर सफलता के बाद नया खतरा मंडराता है।

फिलहाल, गरियाबंद के जवानों की यह जीत सिर्फ एक एनकाउंटर नहीं, बल्कि पूरे नक्सली संगठन के लिए करारा झटका है। जिन रास्तों पर कभी लाल सलामी की गूंज थी, वहां अब हिरासत, हथियार और आत्मसमर्पण की कहानियां लिखी जा रही हैं।

और इस जीत की सबसे बड़ी तस्वीर शायद यही है – बारिश से भीगे, थके-हारे जवान जब कंधों पर हथियार टिकाए मुस्कुराते हुए लौटे, तो लगा जैसे पूरी बस्तर की धरती ने अपनी आज़ादी की सांस भरी हो।

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