संपादकीय

बुद्ध पूर्णिमा पर IPS रतन लाल डांगी की कलम से

बुद्ध के युग में दुनिया के अलग अलग हिस्सों में परिवर्तन की बहार बह रही थी।चीन मे कन्फ्यूशियस सामाजिक दर्शन की बात, सुकरात का दर्शन ,गंगा के किनारे लोहे के औजार, लेखन, सिक्कों की ढलाई हो रही थी।
*हर महापुरुष अपने समय की परिस्थितियों का परिणाम होता है* वो भी थे
उन्होंने *मध्यम मार्ग का समर्थन किया* , जिसमें संन्यास और दुनियावी भोग से बचने की बात की थी।उनके उपदेश धम्म बन गए थे । *बुद्ध ने संस्कृत के स्थान पर लोगों की स्थानीय बोली पाली का इस्तेमाल किया* ।उन्होंने उपदेश दिया *सबमें स्वयं को देखो* , *ब्रह्मांड के हर प्राणी के प्रति करुणा का भाव रखो* ”
बुद्ध ने धार्मिक गर्न्थो एवं धर्म गुरुओं की बातों को भी मानना जरूरी नहीं समझा था बल्कि कहा था कि किसी भी बात को केवल इसलिए मत मानो की वह धार्मिक गर्न्थो में लिखी हुई है या किसी धर्मगुरु द्वारा कही गई है अथवा उस बात को मानने की परंपरा रही है या फिर दुनिया के बहुत से लोग उस बात को मानते चले आ रहे हैं, आप इन सबको दरकिनार करते हुए किसी बात को तभी मानो की वह बात आपकी बुद्धि, विवेक, ज्ञान,अनुभव एवं तर्क की कसोटी पर परखने पर खरी उतरती हो।
तथागत बुद्ध ने स्वयं को न तो ईश्वर माना और न परमेश्वर माना बल्कि एक असाधारण इंसान माना था।
१, बुद्ध ने कहा कि दुनिया में दुख है इसे नकारा नहीं जा सकता है।

२, यह भी सत्य है कि उस दुख के पीछे कोई न कोई कारण जरूर छुपा हुआ है इसे स्वीकारा जाना चाहिए।
हमारी खोज होनी चाहिए कि जो दुख है उसके पीछे क्या कारण है ?
३,जब हम कारण को जान लेंगे तो यकीनन हम दुख का निवारण कर पाएंगे यानि कि प्रत्येक दुख का निवारण है।
४, लेकिन ध्यान रहे कि दुख का निवारण करने के लिए कोई न कोई उपाय काम में लेना होगा क्योंकि दुख का निवारण करने के लिए उपाय बने हुए हैं अर्थात दुःख दूर करने के उपाय हैं।
तथागत बुद्ध की इन्हीं चार महत्वपूर्ण बातों को चार आर्य सत्य कहा जाता है।

बुद्ध ने कहा था कि दुखों से बचना चाहते हो तो अपने जीवन में एक निर्धारित मापदंड को स्वीकार करो कि:-
१.मैं प्राणी हिंसा से विरत रहूँगा।
२.मैं चोरी नहीं करूंगा।
३.मैं कामवासना से विरत रहूंगा एवं विवाहित होने पर अपने जीवन साथी तक सीमित रहूँगा।
४.मैं झूठ नहीं बोलूंगा।
५.मैं किसी भी प्रकार का नशा नहीं करूंगा।
तथागत बुद्ध के इस मापदंड(पैमाने)को दुनिया भर में पंचशील के नाम से जाना जाता है।

बुद्ध ने केवल उपदेश ही नहीं दिए बल्कि  कपिलवस्तु का भावी सम्राट एवं एक राजकुमार होते हुए भी महल का त्याग किया साथ ही घर परिवार एवं रिश्तेदार सब छोड़ छाड़कर *बहुजन हिताय बहुजन सुखाय* के लिए करीब ५२ वर्षों तक जन मानस को जागृत करते रहे।
*बौद्ध धर्म दीन दुखियों के प्रति करुणा का उपदेश देता है* । *इसमें सभी को रूप, रंग,
नस्ल, जाति और वर्ण की भिन्नता के बावजूद समानता का दर्जा दिया गया है* । इसके लिए
महामानव बुद्ध ने अनेक साहसिक और क्रान्तिकारी कदम उठाये। उन्होंने वेदों की
*चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को* आदर्श सामाजिक व्यवस्था मानने से इन्कार कर दिया। ब्राह्मण धर्म
के चार वर्णो-ब्राहाण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में तीन ऊपरी वर्गों को ही ज्ञान प्राप्ति का
अधिकार था। शूद्रों, सभी चारों वर्गों की स्त्रियों और अछूतों को कतई नहीं। यही नहीं इन्हें
यानि शूद्रों, स्त्रियों तथा अछूतों को चार आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास में
से केवल गृहस्थ आश्रम में ही प्रवेश करने का अधिकार था अन्य में नहीं। भगवान् बुद्ध
ने इस व्यवस्था को ठुकरा कर *सभी को समान अधिकार और अवसर दिये* । समानता के
अधिकार स्थापित करने के लिए बुद्ध ने कई और कदम उठाये। अपने भिक्खुसंघ में उन्होंने
जाति और सामाजिक स्तर को कोई स्थान नहीं दिया। *उन्होंने बताया कि सभी अपने कर्मों द्वारा ही बड़े-छोटे बनते हैं* । जातिव्यवस्था पर कुठाराघात करने के लिए शाक्यमुनि ने भिक्खावृत्ति को भिक्खुओं के लिए अनिवार्य बनाया।भिक्खु भिक्खा में मिले भोजन पर ही निर्भर करते थे और वह किसी भी जाति का हो सकता था। प्रसंगवश यहां बताया जा
सकता है कि भगवान बुद्ध ने अपना अंतिम भोजन चुन्द नामक सुनार के घर से लिया था।
*जन्म से अपने को श्रेष्ठ मानने वाले को शाक्य सिंह ने मुहतोड़ उत्तर
दिया था* ।कई अवसरों पर उन्होंने कहा कि *शरीर की रचना और जन्म की प्रक्रिया में एक उच्च वर्ण और चंडाल में कोई भेद नहीं है* । उनका जन्म भी माता की कुक्षि से उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार एक चंडाल का होता है। सभी मनुष्यों की शारीरिक रचना अवश्य बिल्कुल समान हैं-च्च्थोड़ा सा भी फर्क नहीं है।” अन्य स्थानों पर यही बात कही गयी है।
*महामानव बुद्ध ने राजाओं, महाराजाओं, वैश्यों और ब्राह्मणों के साथ-साथ अनगिनत
दलितों, अछुतों तथा अपराध कर्मियों को बिना किसी हिचक के अपने धर्म में दीक्षित कर
लिया। इनमें सुणीत नामक भंगी, सोपाक और सुप्पिय डोम, प्रकृति नाम की चांडाल-कन्या,
आम्रपाली जैसी वेश्या, उपालि (नाई), धनिम (कुम्हार), सती (मल्लाह) प्रमुख हैं। अंगुलिमाल
जैसे हत्यारे तथा सैकड़ों अन्य अपराध कर्मियों को धर्म तथा अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से सुधार कर वे सदमार्ग पर लाये। इनमें कई थेर बने तथा अर्हत को प्राप्त हुए और उपालि
नामक नाई ने तो विनय पिटक जैसे महान ग्रन्थ का संकलन किया।
वैदिक काल में स्त्रियों का स्थान बहुत अच्छा नहीं था। वे गुरुकुलों में छात्र और शिक्षक के रूप में प्रवेश नहीं पाती थीं।वेदों का अध्ययन नहीं करती थीं।वे ब्रह्मचर्य आश्रम में दाखिला नहीं ले सकती थीं और उपनयन भी नहीं ग्रहण करती थीं।आर्य
व्यवस्था में उनके सामाजिक स्तर में काफी गिरावट आ गई थी।
*महामानव बुद्ध ने स्त्रियों के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई* । उन्होंने नारियों को अपने धर्म में दीक्षित किया और भिक्खुनी संघ की स्थापना की।अलग से भिक्खुनी संघ गठित करने और भिक्खुसंघ की देख-रेख में इसके काम करने के कुछ व्यावहारिक कारण
थे।वैसे बुद्ध स्वयं स्त्रियों को बौद्धिकता और आचरण में पुरुषों से कम नहीं मानते थे।
*संन्यास ग्रहण करने की इन्हें स्वतंत्रता देकर बुद्ध ने स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष ला खड़ा
किया।बुद्ध के इस कदम को क्रान्ति और स्त्रियों के लिए आजादी निरुपित करते हुए
मैक्समूलर ने कहा है कि मनु कानून की कष्टदायी बेड़ियां छिन्न-भिन्न हो गयीं और स्त्रियों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्राप्त हो गयी। आध्यात्मिक
स्वतंत्रता की इच्छा होने पर सामाजिक रुकावटों से ऊपर उठकर वे इसकी प्राप्ति के लिए जंगलों में जाने के लिए पूर्ण स्वतंत्र थीं। अपने धर्म में दीक्षित करने के लिए भगवान बुद्ध ने शर्त नहीं रखी कि स्त्रियों का कुआंरी होना जरूरी है। सभी स्त्रियों, विवाहित, अविवाहित, विधवा यही नहीं वैश्याओं के लिए भी उन्होंने अपने धर्म के दरवाजे खोल कर रखे।
सिद्धार्थ गौतम को इस उपेक्षित वर्ग के प्रति कितनी सहानुभूति थी।
एक दिन सिद्धार्थ गौतम अपने कुछ साथियों के साथ अपने पिता के खेत पर गये।
वहीं उन्होंने देखा कि खेतीहर मजदूर जिनके पास तन ढकने के लिए पर्याप्त कपड़े भी नहीं
हैं, कड़ी धूप में खेत फोड़ रहे हैं और बांध बांध रहे हैं। सिद्धार्थ, जो मानव द्वारा मानव के शोषण के विरुद्ध थे, इस दृश्य को देखकर द्रवित हो उठे। उन्होंने अपने एक मित्र से कहा, एक आदमी दूसरे का शोषण करे क्या इसे ठीक कहा जायेगा? मजदूर मेहनत करे और
मालिक उसकी कमाई पर गुलछरें उड़ाये यह कैसे ठीक हो सकता है?
महामानव बुद्ध कर्मकांड तथा बाह्य-आडम्बर के सख्त खिलाफ थे। चमत्कार, अलौकिक
शक्ति, मुहूर्त निकालने की प्रवृत्ति, फलित ज्योतिष में उनका विश्वास नहीं था। उल्का-पतन
और स्वप्न को वे शुभ-अशुभ नहीं मानते थे। सारनाथ में अपने पांचों पुराने भिक्खु साथियों के समक्ष प्रथम धर्म-चक्र प्रवर्तन सूत्र में उन्होंने कहा था, मांस-मछली से परहेज करने, नंगा रहने, सिर मुड़ाने, जटा बढ़ाने, खुरदरा पोशाक धारण करने, शरीर पर कीचड़ लपेटने एवं यज्ञ करने से भ्रष्ट मनुष्य पवित्र नहीं हो सकते। वेद पढ़ने, पुरोहितों को दान-दक्षिणा देने, देवताओं को बलि चढ़ाने, सर्दी-गर्मी में आत्मदमन तथा अमर होने के लिए किये जाने वाले ऐसे ही अनेक तप पतित व्यक्ति को शुद्ध नहीं करेंगे।” एक अन्य अवसर पर तथागत ने
कहा था, च्च्कर्मकांडों में कोई क्षमता नहीं, प्रार्थनाएं व्यर्थ हैं और जादू-टोना, झाड़-फूक में
बचाव करने की शक्ति नहीं ।ज्ज्
बुद्धाज्ज् भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरु ने विश्व और इस देश को महामनाव
बुद्ध की देन के सम्बन्ध में अपनी पुस्तक च्डिस्कवरि ऑफ इंडिया’ में लिखा है, च्च्लोक प्रचलित धर्म, अन्धविश्वास, कर्मकांड, और पुरोहित प्रपंच तथा इनसे जुड़े निहित स्वार्थों पर प्रहार करने का साहस बुद्ध में ही था।
ब्रह्म-वैज्ञानिक एंव अभौतिक दृष्टिकोण, चमत्कार, रहस्योद्घाटन, तथा अलौकिक शक्ति को प्रभावित करने की प्रवृति की भी उन्होंने भत्र्सना की थी। उनका आग्रह तर्क, विवेक और अनुभव के प्रति एवं नैतिकता पर जोर तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का था ऐसा
मनोविज्ञान जिसमें आत्मा का कोई स्थान नहीं था।बासी और घिसी-पिटी ब्रह्मवैज्ञानिक
चिन्तन की तुलना में उनका मार्ग पहाड़ों से आती हवा के समान था।ज्ज्
भगवान् बुद्ध का महापरिनिर्वाण ई.पू. ४८३ में रात्रि के तीसरे पहर कुशीनगर में ।
हुआ था। उस दिन वैशाख पूर्णिमा थी। बौद्धों की मान्यता है कि भगवान् बुद्ध का
जन्म और ज्ञान प्राप्ति भी बैशाख पूर्णिमा को ही हुई थी। इसी कारण बौद्ध जगत में
इस तिथि का विशेष महत्व है।

रतन लाल डांगी,
पुलिस महानिरीक्षक
सरगुजा, छत्तीसगढ़

 

 

 

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