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ऐसे मिली इस वरिष्ठ नेता को नक्सली हमले से मौत !

नमस्कार दोस्तों..फोर्थ आई न्यूज़ में आप सभी का बहुत-बहुत स्वागत है। दोस्तों हमने हमारे चैनल में आपको हमारे प्रदेश के चर्चित नेताओं पर कई स्पेशल स्टोरीज दिखा चुकी हैं, जो मौजूदा राजनीती में सक्रियता के मोर्चे पर हैं, मगर दोस्तों आज हम इतिहास के पन्नों को पलटते हुए आपके लिए एक ऐसे नेता की कहानी लेकर आए हैं जो अविभाजित मध्यप्रदेश और छत्त्तीसगढ़ के समय कांग्रेस के एक दिग्गज नेता रहे, इस नेता में इतनी ताकत थी कि उस दौर की प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गाँधी भी इनसे बड़े फैसले लेने से पहले सलाह मशवरा लिया करतीं थीं। इस नेता पर यह भी इलज़ाम लगे कि इन्होनें पत्रकारिता के काले इतिहास को रचने में अपनी स्याही का इस्तेमाल किया वहीं छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद भी इनकी मुख्यमंत्री बनने की हसरत अधूरी ही रह गई।

हम जिस दिग्गज नेता की बात कर रहे हैं वो थे कांग्रेस के शूरवीरों में शुमार विद्याचरण शुक्ल। शुक्ल बंधुओं के नाम से चर्चित विद्याचरण शुक्ल आज भले ही हमारे बीच में ना हों, मगर मौजूदा राजनीती में उनका ज़िक्र करना ज़रूरी है। वो क्यों यह हम आपको आगे बताते हैं। पहले हम आपको विद्याचरण शुक्ल की पृष्ठभूमि से रूबरू करवाते हैं। विद्याचरण शुक्ल का जन्म 2 अगस्त 1929 को रायपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित रविशंकर शुक्ल था। जो मध्य प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे। विद्याचरण शुक्ल के भाई का नाम में श्यामाचरण शुक्ल था। वे भी मध्यप्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। 15 फरवरी 1951 को विद्याचरण शुक्ल की शादी सरला शुक्ला से हुई और उनके तीन बेटियां हैं।

विद्याचरण शुक्ल साल 1957 में पहली बार महासमुंद में से लोकसभा चुनाव जीती और सबसे युवा सांसद बने। यह उनके खुद में ही रिकॉर्ड था कि वे नौ बार लोकसभा के सांसद रहे। 1966 में पहली बार इंदिरा गांधी कैबिनेट में शामिल हुए। विद्या चरण शुक्ला चंद्रशेखर सरकार में भी विदेश मंत्री रहे। 1957 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने विद्या चरण शुक्ल को महासमुंद सीट से चुनावी अखाड़े में उतारा। एक बड़े बहुमत के साथ जीत दर्ज कर उन्होंने भारतीय संसद में अपनी जगह बनाई।

साल 1962 मे महासमुंद से दुबारा सांसद बने। वह उस वक्त के युवा सांसदों में से एक थे। 1962 में महासमुंद से और 1971 मे रायपुर से सांसद बने।
1977 मे उन्होने लोकसभा का चुनाव रायपुर से लडा पर आपातकाल से उपजे आक्रोश के कारण वे हार गये। नौ लोकसभा चुनावों में जीतकर उन्होंने कांग्रेस पार्टी में अपनी जबरदस्त धाक जमाई।

1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी, तो उन्होंने विद्या चरण शुक्ल को कैबिनेट मंत्री नियुक्त किया। राजनीतिक सफर के दौरान उन्हें कई बेहद महत्त्वपूर्ण मंत्रालय मिले जैसे दूरसंचार, गृह, रक्षा, वित्त, योजना, सूचना एवं प्रसारण, विदेश, संसदीय, जल संसाधन। 1975 से 1977 के दौरान विद्या चरण शुक्ल ने ही ऑल इंडिया रेडियो पर किशोर कुमार के गाने पर रोक लगा दी थी। तब वह सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। दरअसल किशोर कुमार ने कांग्रेस के लिए गाने से इनकार कर दिया था। इससे नाराज होकर उन्होंने ये सख्त कदम उठाया था।

विद्याचरण शुक्ल की जिंदगी का सबसे चर्चित दौर आपातकाल का रहा, जब वे इंदिरा गांधी और संजय गांधी के साथ सेंसरशिप लागू करने वाले मंत्री के रूप में पूरे भारतीय मीडिया की नाराजगी का केन्द्र बने, और मीडिया की अगली पीढ़ी भी उनके उस दौर को नहीं भूल पाई। आपातकाल की जितनी ज्यादतियां रहीं, उन पर जब शाह कमीशन बैठा, तो विद्याचरण शुक्ल जांच के घेरे में लंबे समय तक रहे।

इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी के दौर में जब वीपी सिंह के साथ कुछ लोगों ने राजीव से बगावत की, तो उनमें वीसी शुक्ल शामिल थे, हालांकि वे हमेशा यह कहते रहे कि उन्हें कांग्रेस से निकाला गया था, उन्होंने कांग्रेस छोड़ी नहीं थी।

आज जिन लोगों को कांग्रेस में गुटबाजी अधिक लगती है, उन लोगों ने 1980 से शुरू होने वाले एक पूरे दशक को ठीक से याद नहीं रखा है जब श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल लगातार और अलग-अलग कांग्रेस के खेमों में रहे या कांग्रेस के बाहर रहे, इन दोनों की राजनीति कांग्रेस के भीतर भी अलग-अलग चलती रही।

जनमोर्चे के दौर में छत्तीसगढ़ में विद्याचरण शुक्ल कांग्रेस के खिलाफ, राजीव गांधी के खिलाफ एक बड़ी ताकत बनकर उभरे, और कांग्रेस का एक हिस्सा उनके साथ गया। लेकिन बाद के बरसों बाद वो लौटकर कांग्रेस में आए और जब 2000 में छत्तीसगढ़ एक राज्य बना, तो उन्हें यहां का पहला मुख्यमंत्री बनने की पूरी उम्मीद थी।

मगर उनकी वह हसरत पूरी नहीं हुई, और उन्होंने कांग्रेस छोड़कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के झंडे तले छत्तीसगढ़ में कई जगह उम्मीदवार खड़े किए, और यह माना गया कि 2003 के चुनाव में उन्हें मिले वोटों की वजह से इस राज्य में कांग्रेस की सरकार दुबारा नहीं बन सकी। इसके बाद वे लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए भाजपा की तरफ से खड़े हुए, और चुनाव हार गए। जल्द ही वे कभी न छोडऩे की कसम खाते हुए कांग्रेस में लौट आए और अपनी मौत तक कांग्रेस में ही रहे।

26 मई साल 2013 का दिन था जब कांग्रेस की ‘परिवर्तन यात्रा’ पर नक्सलियों ने कांग्रेस नेताओं के काफिले पर घात लगाकर हमला किया, जिसमें कांग्रेस के वरिष्ठ नेता महेंद्र कर्मा सहित 27 लोग मारे गए और विद्या चरण शुक्ल तथा 31 अन्य लोग जख्मी हो गए थे। शुक्ल को गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में भर्ती करावाया गया था जहां उनका निधन हो गया। उन सबकी मौत पर तीन दिन का राजकीय शोक रखा गया था।

और इस तरह कांग्रेस के सबसे बुजुर्ग नेता का अवसान हुआ। अपनी मौत के साथ ही विद्याचरण शुक्ल की एक और लोकसभा चुनाव लडऩे की उनकी हसरत बची रह गई। वे अपनी पूरी जिंदगी एक अलग किस्म के लड़ाकू बने रहे, और जितने लोकसभा चुनाव उन्होंने लड़े और जीते, उसका रिकॉर्ड देश में गिना-चुना ही है। वे चुनावों से लेकर संगठन की राजनीति में, गुटबाजी में, ओलंपिक एसोसिएशन के चुनावों में, हर जगह बेहद दम-खम से सक्रिय रहते आए थे, और उनको मानने वाले लोगों में हैरान कर देने वाली विविधता थी। उन्होंने नक्सली हमले में जख्मी होने के ठीक पहले तक का हर दिन अपनी राजनीतिक सक्रियता से जिया, और आगे और लड़ाई की, संघर्ष की उनकी हसरत अधूरी ही रह गई।

दोस्तों, प्रदेश के इस वयोवृद्ध राजनेता पर आपकी क्या राय है ? क्या आप मानते हैं कि ऐसे नेता अब विरले ही रह गए हैं ? विद्याचरण शुक्ल का जिस तरह का राजनितिक करियर रहा जो उपलब्धियां रहीं उनकी छवि मौजूदा दौर के किस नेता में आप देखते हैं ?

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