ट्रंप के ‘टैरिफ टॉरनेडो’ से तीसरे विश्व युद्ध की दस्तक?
एक सनकी फैसले, दो खेमे और तीन परमाणु ताकतें

दुनिया एक बार फिर उसी पुराने मोड़ पर आ खड़ी हुई है—जहां एक गलत बटन दबाने से पूरा ग्रह राख में बदल सकता है। फर्क बस इतना है कि इस बार ट्रिगर फिंगर डोनाल्ड ट्रंप के हाथ में है और वो भी बिना किसी से परामर्श के, सीधे ‘टैरिफ-बम’ के साथ।
हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने रूस के दरवाजे पर परमाणु सबमरीन तैनात करने का आदेश दिया। वजह? रूस के पूर्व राष्ट्रपति दमित्रि मेदवदेव की एक धमकी। लेकिन असली सवाल ये है कि क्या ट्रंप दुनिया की राजनीति को व्यक्तिगत दुश्मनी का अखाड़ा बना रहे हैं?
ड्रैगन, भालू और ट्रंप: सबके पास अब बटन है
जहां एक तरफ ट्रंप ‘शांति’ के नाम पर परमाणु हथियारों का प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीं रूस और चीन भी पीछे नहीं हैं। तीनों देशों में अब परमाणु हथियारों की ऐसी दौड़ छिड़ गई है जिसमें कोई भी खुद को पीछे नहीं देखना चाहता। अब हालत ये है कि जापान, सऊदी अरब, पोलैंड जैसे देश भी ‘परमाणु क्लब’ में शामिल होने की तैयारी कर रहे हैं। जैसे दुनिया ने तय कर लिया हो कि अब हथियार ही शांति लाएंगे।
INF संधि – इतिहास की किताब में एक और अध्याय
एक वक्त था जब अमेरिका और रूस ने मिलकर तय किया था कि 500 से 5500 किलोमीटर तक वार करने वाली मिसाइलों को खत्म करेंगे। 1987 की INF संधि एक आशा की किरण थी, लेकिन ट्रंप ने इसे 2019 में नज़रअंदाज़ कर दिया। अब रूस भी इससे हट चुका है। यानी ‘नो रूल्स, नो रिस्ट्रिक्शन’ का गेम शुरू हो चुका है।
दुनिया दो हिस्सों में, भारत चौराहे पर
आज की वैश्विक राजनीति साफ दो ध्रुवों में बंटी दिखाई दे रही है—एक तरफ ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका, दक्षिण कोरिया, यूक्रेन जैसे देश; दूसरी ओर रूस, चीन और नॉर्थ कोरिया।
भारत अब तक तटस्थ रहा है, लेकिन बढ़ते तनाव के बीच उसे अपनी स्थिति स्पष्ट करनी पड़ सकती है। क्या भारत दोबारा RIC (रूस-इंडिया-चीन) की ओर लौटेगा? शायद, अगर ट्रंप अपनी बेलगाम नीतियां ऐसे ही जारी रखते हैं तो भारत को चीन के साथ हाथ मिलाने में भी हिचकिचाहट नहीं रहेगी।
क्योंकि आज की दुनिया में ‘कम बुरा कौन है’, यही तय करना सबसे मुश्किल होता जा रहा है।
ट्रंप के खिलाफ बढ़ता अंतरराष्ट्रीय अविश्वास
डोनाल्ड ट्रंप की आक्रामक विदेश नीति और ‘अमेरिका फर्स्ट’ की आड़ में बाकी दुनिया को ठेंगा दिखाने की आदत ने यूरोप को भी नाराज़ कर दिया है। ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा जैसे देश फिलिस्तीन को मान्यता देकर एक कड़ा संदेश दे चुके हैं। कई यूरोपीय देश अब अमेरिका से दूरी बनाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। ट्रंप का व्यवहार ऐसा ही रहा तो अमेरिका न सिर्फ एशिया में, बल्कि अपने पुराने मित्र यूरोप में भी अलग-थलग पड़ सकता है।
युद्ध नहीं, समझदारी की जरूरत
डोनाल्ड ट्रंप की नीतियां फिलहाल दुनिया को दो ध्रुवों में बांट रही हैं। उनका नेतृत्व अगर इसी दिशा में बढ़ता रहा तो तीसरे विश्व युद्ध की भूमिका में उनका नाम ‘भूमिपूजनकर्ता’ के तौर पर दर्ज हो सकता है। परमाणु हथियारों की बढ़ती होड़, टूटती संधियां, और राष्ट्राध्यक्षों की आक्रामक राजनीति ने एक असहज सवाल खड़ा कर दिया है। क्या हम फिर से उस मोड़ पर हैं, जहां इंसानियत से ज्यादा अहम हथियार बन चुके हैं?