लाइफस्टाइल

हम सबके दिमाग में होता है एक भूलने वाला कर्व

बातों को, किताबों को, फिल्मों को और कभी कभी जरूरी काम को भूल जाना सामान्य बात है. ऐसा करने वाले आप अकेले नहीं हैं. हमारे दिमाग की भी एक सीमा होती है – बेचारा क्या क्या करेगा. याददाश्त भी एक सीमा तक की काम कर पाती है. जानकारों की मानें तो हमारे दिमाग में एक भूलने वाला वक्र यानि कर्व होता है. ये कर्व उन शुरुआती 24 घंटों में सबसे चढ़ाई में होता है जब आप कुछ देखते या पढ़ते हैं.

ये खबर भी पढ़ें – दिमाग का यह हिस्सा ज्यादा खाना खाने के लिए करता है प्रेरित

अब नेटफ्लिक्स पर किसी शो को देखे कुछ घंटे ही बीते होंगे कि आपने फेसबुक पर पोस्ट करना शुरू कर दिया. लेकिन 24 घंटे बाद धीरे धीरे आपकी याददाश्त आपका साथ छोडऩे लगेगी. अब आपको सैक्रेड गेम्स में नवाजुद्दीन के सारे डायलॉग याद नहीं आएंगे. आप फिर शो देखेंगे और याद करेंगे कि उसने कौन सी लाइन कब बोली थी. हालांकि इस मामले में कुछ अपवाद हमेशा रहते हैं. कुछ लोगों की याददाश्त इस भूलने वाले वक्र को झुठलाते हुए सब कुछ दिमाग में समेट कर रख लेती है.

ये खबर भी पढ़ें – योग व ध्यान से होता हैं तेज दिमाग

अंग्रेजी वेबसाइट द अटलांटिक में छपे एक लेख के मुताबिक इंसानी याददाश्त हमेशा से ऐसी नहीं थी. मेलबर्न यूनिवर्सिटी के रिसर्चर जैरेड होर्वाथ का मानना है कि सूचना और मनोरंजन को ग्रहण करने के हमारे तरीके ने हमारे याद रखने के तरीके पर काफी गहरा असर छोड़ा है. अब हमारी याददाश्त वैसी नहीं रही कि हम छह महीने पहले देखी किसी फिल्म के प्लॉट को याद रख सकें. इसके पीछे की वजह है इंटरनेट.
हमारी रिकॉल मेमरी यानि दिमाग में तुरंत किसी बात को याद करना कम हो गया है. किसी चीज़ को पूरी तरह याद रखने से ज्यादा जरूरी हो गया यह याद रखना कि वो सूचना या जानकारी कहां और कैसे मिलेगी.

ये खबर भी पढ़ें – दिमाग में नहीं घुसते थे किताबी  अब यंगस्टर के दिलों पर करता है राज !

इसकी वजह यह भी है कि कहीं न कहीं हमें पता है कि गूगल तो है ही, कुछ याद रखने की सिरदर्दी हम नहीं लेते. यहां तक कि फोन नंबर भी हम याद नहीं रखते. मोबाइल जि़ंदाबाद, यह छोडि़ए अब तो हम फोन नंबर सेव भी नहीं करते क्योंकि स्मार्टफोन के आने से परिवार के सदस्यों के फोन एक दूसरे से जीमेल के ज़रिए जुड़ गए है. ऐसे में आपके फोन में सेव किसी व्यक्ति का नंबर अपने आप दूसरे सदस्य के फोन में आ जाएगा. ऐसे में फोन नंबर याद रखना किसी याद रहता है. इंटरनेट एक तरह से बाहरी मेमरी का काम करता है.

forget01

लेकिन ऐसा नहीं है कि इंटरनेट से पहले हमारा दिमाग चाचा चौधरी की तरह कम्प्यूटर जैसा तेज़ चलता था. लिखित शब्दों का चलन भी एक तरह से बाहरी मेमरी का ही काम करता आया है. दार्शनिक प्लेटो या अफ्लातून को दर्शन शास्त्र में लिखित संवादों का जनक माना जाता है. उनके गुरु सुकरात थे. होर्वाथ कहते हैं ‘सुकरात को लिखना बिल्कुल पसंद नहीं था क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे याद करने की काबलियत मर जाएगी. वह कहीं न कहीं सही थे. लिखने ने मेमरी को मार डाला है. लेकिन यह भी सोचिए कि कितनी कमाल की बातें भी हमें इसलिए हासिल हुई हैं क्योंकि वो लिखी हुईं थी.

सुकरात को लिखना बिल्कुल पसंद नहीं

मैं किसी जरूरी बात को याद रखने से ज्यादा बेहतर उसे लिख लेना पसंद करूंगा.’इंटरनेट भी हमे ऐसी ही सुविधा देता है. सब कुछ याद रखने से बेहतर है उसके ठिकाने को याद रखना और जब जरूरत हो उस तक पहुंच जाना. वैसे भी हम यहां जिस स्तर के भूलने की बात कर रहे हैं वह कोई बीमारी नहीं है. कुछ देखकर या पढक़र उसे भूल जाना आम बात है. जानकार तो यह भी कहते हैं कि भूल जाना भी याद रखने की प्रक्रिया का एक अहम हिस्सा है.

तो सवाल यह है कि इंटरनेट का सहारा होने के बावजूद याद रखने का कोई और तरीका है. इसे लेकर दो मत हैं. कुछ शोध कहती हैं कि कुछ याद रखना है तो उसे बार बार देखो. एक फिल्म को देखो मत, बार बार देखो. आमिर खान की फिल्म ‘अंदाज अपना अपना’ हम सबने कितनी बार देखी होगी. और बार बार देखने के बाद ही शायद यह हाल है कि उसका एक एक डायलॉग हम अपने दोस्तों के बीच अक्सर बोल देते हैं.

दूसरे तरह के शोध कहते हैं कि हम कुछ ज्यादा ही पढ़ और देख रहे हैं जो कि जरूरी नहीं है. 2009 में हुए एक शोध के मुताबिक एक औसत अमेरिकी दिन में एक लाख से ज्यादा शब्दों का सामना करता है. सोशल मीडिया पर जिस तरह अलग अलग लेख की बाढ़ आई होती है, ऐसे में बहुत कुछ पढ़ तो लिया जाता है लेकिन सवाल है कि उसमें हम कितना याद रख पाते हैं.
https://www.youtube.com/watch?v=DXy4wR0TvAY

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button