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आखिर क्यों फिर जीत की ओर अग्रसर हैं PM मोदी

चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव का बिगुल बजाने के साथ ही जंग की वास्तविक शुरुआत हो चुकी है. चुनाव मैराथन दौड़ के साथ ही एक लंबी बाधा दौड़ भी होते हैं, जिनमें कई अवरोध और ऊंच-नीच आते हैं. इसलिए दौड़ की शुरुआत में ही कोई अनुमान लगाना घातक साबित हो सकता है. फिर भी, मैं आपको 10 ऐसी वजहें बताता हूं जिनसे मुझे ऐसा लगता है कि फिलहाल तो मोदी साफतौर पर सबसे आगे दिख रहे हैं.

1. आज का चुनाव मनी, मशीन और मीडिया का है

आज का चुनाव मनी, मशीन और मीडिया का है और टीम मोदी को इसमें भारी बढ़त हासिल है. भारतीय चुनावों के इतिहास में कभी भी मीडिया की सोच इतनी एकतरफा नहीं रही है. सत्तारूढ़ पार्टी के पास विशाल धनबल है और सभी प्लेफॉर्म पर वोटर्स से जुड़ने की पार्टी की मशीनरी बखूबी समायोजित है.

इस तरह बीजेपी जहां एक चमचमाती, अच्छी तरह से तैयार फरारी जैसी है तो उसकी तुलना में कांग्रेस एक सेकंड हैंड पुराने जमाने की एम्बेसडर जैसी दिख रही है. इसमें कोई अचरज की बात नहीं कि बीजेपी अभी ही अपने प्रतिस्पर्ध‍ियों के मुकाबले कई गुना खर्च कर चुकी है.

2. अब भी नेता नंबर वन हैं मोदी

अब भी मिस्टर मोदी काफी गैप के साथ नंबर वन नेता हैं. चुनाव अभियान के दौरान मोदी ने अथक ऊर्जा, बेहतरीन संचार कौशल और पार्टी के कद से भी ज्यादा वार करने की क्षमता दिखाई है. ‘मोदी है तो मुमकिन है’ नारे के साथ बीजेपी और सरकार को शीर्ष एक करिश्माई नेतृत्व मिला है. तारीफों की आवाज चीयरलीडर्स जैसी विशाल सेना की वजह से कई गुना बढ़ जाती है और हाइप बना रहता है. यह 70 के दशक के अमिताभ बच्चन के मूवी जैसा मामला है जिसमें खराब पटकथा भी फिल्म को बंपर ओपनिंग से रोक नहीं सकती थी. पीएम मोदी का विशाल कद बीजेपी को लगातार ऊर्जा दे रहा है. उन्होंने चुनाव घोषणा से पहले ही इतनी रैलियां और आयोजन कर लिए हैं, जितना कि उनके सभी मुख्य प्रतिद्वंद्वी मिलकर नहीं कर पाए हैं.

हां, यह सच है कि लोकलुभावन जुमलों और लगातार इवेन्ट मार्केटिंग जैसे प्रयासों से, जो अक्सर जमीनी सच्चाई से परे होते हैं, लोगों में निराशा भी है, लेकिन ऐसा नहीं लगता है कि यह वोटरों की नाराजगी में बदली है. मोदी का गुब्बारा उस तरह से फूटा नहीं है, उनकी सतर्कता से बनाई क‍ठोर मेहनत करने वाले ‘कर्मयोगी’ और राजनीतिक इच्छाशक्ति तथा जोखिम लेने के साहस रखने वाले नेता की छवि काफी हद तक बनी हुई है और बालाकोट को उनके निर्णायक नेतृत्व का नवीनतम उदाहरण माना जा रहा है.

3. अमित शाह की इलेक्शन इंजीनियरिंग

पीएम मोदी और बीजेपी को अमित शाह की इलेक्शन ‘इंजीनियरिंग’ का लाभ मिल रहा है. साल 2014 में अमित शाह यूपी के इंजार्ज थे और राज्य में बीजेपी को जबर्दस्त सफलता मिली. साल 2019 में पार्टी अध्यक्ष के रूप में वह अब पूरे देश में बीजेपी के इंचार्ज हैं. हालांकि, भारतीय राजनीति में ‘सबके लिए कोई एक फॉर्मूला’ कारगर नहीं होता- शाह के नेतृत्व में बीजेपी को 2015 में दिल्ली और बिहार में बड़ी हार मिल चुकी है. लेकिन संसाधनों से लबरेज और निर्दयी शाह ‘साम, दाम, दंड, भेद’ के मूर्तरूप हैं, उनका राजनीतिक दर्शन है कि ‘साधन से ज्यादा साध्य ज्यादा मायने रखता है.’

इसके अलावा, संघ के समर्पित कार्यकर्ता, बूथ तक मौजूद कार्यकर्ता और बीजेपी का मजबूत संगठन संभावित मतदाताओं तक पार्टी की पहुंच को आसान बनाते हैं.

4. कांग्रेस की खराब हालत

हिंदी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों में जीत मिलने के तीन महीने के बाद कांग्रेस वह रफ्तार नहीं बनाए रख पाई है. मोदी सरकार ने तेजी से अपनी कमजोरियों को दूर किया है और किसानों, ऊंची जातियों, मध्यम एवं लघु उद्योगों आदि के लिए कई राहतों की घोषणा की है. गुटबाजी, भितरघात और निर्णय लेने में सुस्ती की वजह से यह काफी पुरानी पार्टी अवसरों को अपने लिए भुना नहीं पा रही है. सच तो यह है कि कांग्रेस आईसीयू से बाहर जरूर आ गई है, लेकिन उसे तत्काल पुनर्वास कार्य की जरूरत है. ऐसे राज्यों में जहां सीधे बीजेपी बनाम कांग्रेस की लड़ाई है, वहां बीजेपी फायदे में रह सकती है.

5. राहुल गांधी का नेतृत्व

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी रहस्यों में लिपटी हुई एक पहेली बने हुए हैं. साल 2017 में गुजरात की लड़ाई और 2018 दिसंबर के विधानसभा चुनावों से उन्हें एक जुझारू प्रचारक के रूप में सम्मान जरूर मिला है, लेकिन उन्होंने अब भी ऐसा कोई संगठनात्मक या मानव प्रबंधन कौशल, या प्रखर राजनीतिक ज्ञान नहीं दिखाया है, जिसकी वजह से उन्हें सत्ता का स्वाभाविक दावेदार और समूचे विपक्ष के लिए आकर्षण माना जा सके. उदाहरण के लिए उन्होंने मायावती या ममता तक व्यक्तिगत स्तर पर पहुंचने की कोई कोशिश नहीं की. राफेल केंद्रित उनका प्रचार अभियान भी दोधारी तलवार जैसा है, क्योंकि इससे कृषि संकट, नौकरियों जैसे महत्वपूर्ण मसलों से ध्यान हट रहा है.

6. महागठबंधन की पहेली

विपक्ष अब भी एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम या एक साझे मंच के साथ हमला करने के लिए तैयार नहीं है, जो मोदी विरोध से परे हो या किसी ऐसे सामूहिक नेतृत्व की पहचान कर सके, जो ‘मोदी बनाम कौन’ के नैरेटिव को चुनौती दे सके. सभी 543 सीटों पर एक साझे मोर्चे पर लड़ने की जगह विपक्ष अब वोट विभाजित होने के जोखिम का सामना कर रहा है, खासकर यूपी जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में. कांग्रेस को यह सोचना होगा कि यह चुनाव उसके अपने उभार के लिए है या देश भर में बीजेपी को घटाने के लिए? इसी तरह, मायावती जैसे क्षेत्रीय राजनीतिज्ञों को भी यह सोचना होगा कि वे चुनाव के पहले ही गठबंधन के बारे में मजबूत निर्णय लें.

7. आंकड़ों के हिसाब से भी बीजेपी मजबूत

साल 2014 में उत्तर और पश्चिम भारत में बीजेपी को करीब 90 फीसदी सीटों पर जीत मिली थी. इस तरह का प्रदर्शन तो इस बार संभव नहीं लगता, लेकिन बीजेपी इस बार भी इस इलाके में अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले 75 से 100 सीटें ज्यादा पा सकती है. यह नहीं भूलना चाहिए कि 2014 के चुनाव में बीजेपी ने 42 लोकसभा सीटें 3 लाख से ज्यादा वोट से, 75 सीटें 2 लाख से ज्यादा वोट से और 38 सीटें 1.5 लाख से ज्यादा वोटों से जीती हैं. तो बीजेपी को इस बार सबसे बड़े राजनीतिक दल बनने से रोकने के लिए उसके विपरीत भारी झुकाव की जरूरत होगी. बीजेपी को 200 सीटों से ज्यादा मिलती है, तो एनडीए की सरकार फिर से बन सकती है.

8. यूपी जैसा महत्वपूर्ण राज्य

यूपी में सपा-बसपा गठबंधन को लेकर विपक्ष में तो भारी चर्चा है और उत्साह है और उसी तरह से प्रियंका गांधी वाड्रा के ‘औपचारिक’ तौर पर राजनीति में शामिल होने का भी. लेकिन बुआ-भतीजा का गठबंधन अब भी जमीनी समीकरणों से दूर है. उदारहण के लिए यह देखना होगा कि क्या यादव वोटर आसानी से बसपा की तरफ जाएगा? इसी तरह प्रियंका के राजनीति में उतरने का भी कोई खास असर होता नहीं दिख रहा.

दूसरी तरफ, बीजेपी ने यूपी में अपना काफी कुछ झोंक दिया है. राज्य में बीजेपी यदि 2014 के 73 के मुकाबले आधी सीटें भी जीत पाई तो मोदी सरकार को फिर आने से कोई नहीं रोक पाएगा. तो दिल्ली का रास्ता निश्चित लग रहा है कि इस बार भी लखनऊ से ही होकर जाएगा.

9. पुलवामा, पाकिस्तान, बालाकोट एयरस्ट्राइक

जयश्रीराम से भारत माता की जय तक, बाबर की औलाद से पाकिस्तानी जिहादी तक, भगवा धारी साधु-संतों से लेकर सेना की वर्दी धारण करने वालों तक, मोदी सरकार पुलवामा और बालाकोट के एजेंडे को आगे बढ़ा रही है जो कि राष्ट्रीय सुरक्षा को राजनीतिक रिवायतों के केंद्र में लाए. आक्रामक राजनीति का यह ब्रांड हो सकता है कि सीमांत ग्रामीण इलाकों और दक्षिण भारत में सीमित असर डाले, लेकिन यह शहरी इलाकों और महत्वपूर्ण हिंदी पट्टी में काफी कुछ बदल सकता है.

10. ‘हिदुत्व’ वाला नया युवा वोटर

चुनाव आयोग के मुताबिक देश में 8.4 करोड़ लोग पहली बार वोट डालने जा रहे हैं, जो कि कुल मतदाताओं का करीब 10 फीसदी हैं. यह ऐसा वोटर है जिसके दिमाग में बाबरी मस्जिद के ढहने या 2002 के गुजरात दंगों की कोई स्मृति नहीं है. यह वह युवा जनसंख्या है, जो मोदी के ‘न्यू इंडिया’, ‘मजबूत सरकार’, ‘हाऊ इज द जोश’ जैसे नारों से प्रभावित है. इस युवा जनसंख्या को यह बात प्रभावित करती है कि ‘आतंकवाद पर सख्त नीति होनी चाहिए’, ‘चलो पहले कश्मीर मसला निपटा लें’. बीजेपी के मुख्य मध्य वर्गीय हिंदू दक्ष‍िणपंथी समर्थकों को ‘बदमाश’ इस्लामी देश पाकिस्तान से टकराव सूट करता है. अगर विपक्ष एक होकर ‘किसान-नौजवान’ की अर्थव्यवस्था पर ज्यादा केंद्रित चर्चा को आगे नहीं बढ़ाता, तो बीजेपी का मजबूत राष्ट्रवाद निश्चित रूप से 2019 का एजेंडा सेट करेगा.

शर्तें लागू: यहां मैं साल 2004 के चुनाव के पहले बने माहौल का उल्लेख करना चाहूंगा. आज के माहौल की तरह तब भी यही लगता था कि अटलजी के अलावा और कोई प्रधानमंत्री नहीं बन सकता. उनका भी फिर से चुना जाना आज के पीएम मोदी से भी ज्यादा प्रबल माना जा रहा था. लेकिन वह हार गए, क्योंकि दक्ष‍िण के दो राज्यों तमिलनाडु और आंध्र के उनके सहयोगी छिटक गए थे और यूपी ‘शाइनिंग इंडिया’ के नारों से प्रभावित नहीं हुआ. कोई भी लहर राजधानी के इको चैम्बर या तात्कालिक स्टूडियो विश्लेषण से नहीं पैदा होती, बल्कि देश के आंतरिक इलाकों के धूल-धक्कड़ में बनती है. इसी वजह से भारत के मतदाता का व्यवहार कुछ-कुछ लंदन के मौसम जैसा है, जो हमेशा बदलता रहता है.

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