संपादकीय

बेवफा पाक पर ट्रंप का चाबुक

जी. पार्थसारथी, लेखक
इस बार नववर्ष के पहले दिन की शुरुआत पिछले किसी भी साल से अलग थी। चूंकि इस दिन अखबारों और टेलीविजन चैनलों पर खबरों का विषय पिछली रात हुए ट्रैफिक जाम, जश्न कैसे मनाया गया और हुल्लड़पन किस किस्म का था, इत्यादि पर ज्यादातर होता है। परंतु 2018 की शुरुआत ही एक ध्यानाकर्षण ब्रेकिंग न्यूज से हुई जो दरअसल डोनाल्ड ट्रंप का बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति अपने कार्यकाल के पहले नववर्ष आगमन के अवसर पर किया गया ट्वीट था। इसमें ट्रंप ने अपने से पहले रहे राष्ट्रपतियों द्वारा पाकिस्तान को 33 बिलियन डॉलर की मदद ‘मूर्खतापूर्वक’ दिए जाने का जिक्र करते हुए उस मुल्क पर ‘झूठ और धोखे’ का आरोप लगाया है क्योंकि वह इतनी बड़ी आर्थिक सहायता मिलने के बावजूद अफगानिस्तान के आतंकवादियों को सुरक्षित पनाहगाहें मुहैया करवा कर अमेरिकी नेताओं को मूर्ख बनाता आया है। पाकिस्तान को लेकर की गई यह ट्रंप की पहली कड़ी टिप्पणी नहीं थी। पिछले साल 22 अगस्त को अफगानिस्तान पर अमेरिकी नीतियों पर दिए अपने अभिभाषण में उन्होंने कहा था: ‘पाकिस्तान ने अपने यहां उन सगठनों को पनाह दे रखी है जो नित नए दिन हमारे नागरिकों को मारने की साजिशों में लिप्त हैं, वह भी तब जब हम पाकिस्तान को खरबों-खरब डॉलर देते आए हैं।’
ट्रंप के इस बयान पर उम्मीद के मुताबिक पाकिस्तान ने खुद को भी आतंकवाद से लहूलुहान हुआ मुल्क बताते हुए दावा किया कि इस अलामत से लडऩे में उसने भी काफी जानें कुर्बान की हैं। कहना न होगा कि इस झोंक में वह प्रसंग आसानी से गोल कर दिया गया कि कैसे पाकिस्तान ने एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को लगभग एक दशक तक सुरक्षित पनाहगाह दिए रखी थी और आज भी उसने अपनी जमीन को हक्कानी नेटवर्क और तालिबान के शीर्ष नेता सहित अन्य आतंकियों की शरणस्थली बनाया हुआ है। सच्चाई तो यह है कुछेक को छोडक़र बाकी देश उसकी भर्त्सना खुलकर करने में हिचकते हैं। लेकिन पाकिस्तान को यकीन है कि ट्रंप की यह नवीनतम टिप्पणी ठीक उसी किस्म की भभकी मात्र होगी जैसी वह उत्तर कोरिया को देते आ रहे हैं। पाकिस्तान के विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ ने तो यहां तक दिया कि अफगान समस्या का हल साथ लगते पड़ोसी मुल्क यानी पाकिस्तान और चीन ही निकाल सकते हैं।
3 सितंबर, 2017 को जब उत्तर कोरिया ने थर्मोन्यूक्लियर बम का विस्फोट करके पूरी दुनिया को झटका दिया था, तब ट्रंप ने इस कृत्य को अमेरिका के लिए ‘अत्यंत भडक़ाऊ’ और ‘खतरनाक’ करार दिया था। जबकि इससे बमुश्किल एक महीने पहले भी उन्होंने दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति द्वारा उत्तर कोरिया से दोस्ती बढ़ाने वाले प्रयासों की नीति को ‘तुष्टीकरण की राह’ बताया था और साथ ही उत्तर कोरिया को चेताया कि अगर वह बाज नहीं आया तो ‘आग और तबाही’ का कोपभाजन बनने को तैयार रहे। अमेरिकी प्रयासों से हालांकि उत्तर कोरिया की आर्थिक नाकेबंदी कर दी गई है परंतु ट्रंप की अतिरेक वाली इस किस्म की बयानबाजियों से रूस और चीन साफतौर पर खिन्न हैं, क्योंकि उन पर यह दोष भी लगाए जा रहे हैं कि प्रतिबंधों का उल्लंघन कर यह दोनों उत्तर कोरिया को पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात जारी रखे हुए हैं। शायद यह ट्रंप के बेजा अतिशयपूर्ण बयानों की प्रतिक्रियावश है कि दक्षिण कोरिया ने भी उत्तर कोरिया में होने वाले शीतकालीन ओलंपिक्स में भाग लेने पर सहमति जताते हुए उससे संबंध बढ़ाने का यत्न किया है।
इसी बीच पाक-वायुसेनाध्यक्ष ने भी चेताया है कि हक्कानी नेटवर्क पर प्रहार करने हेतु जो भी अमेरिकी ड्रोन हमारे वायु क्षेत्र में आएंगे, उन्हें मार गिराया जाएगा। साथ ही पाकिस्तान ने यह भी चेताया है कि उसकी मदद के बिना अफगान सेना को हथियार और अन्य मदद पहुंचाना अमेरिका और उसके साथियों द्वारा बहुत मुश्किल बन जाएगा क्योंकि वहां तक पहुंचने का सीधा रास्ता पाकिस्तानी थल और वायु क्षेत्र से होकर ही है। आखिर पाकिस्तान को इतना बड़ा दुस्साहस करने के लिए शह और ताकत कहां से मिली है? इसका मुख्य कारक है पाकिस्तान का वह यकीन कि चीन न केवल आर्थिक तौर पर उसे उबार लेने में सक्षम है वरन संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद के मुद्दे पर आने वाले किसी भी प्रस्ताव को वीटो करते हुए उसे बचा लेगा। उसे यह भी पक्का विश्वास है कि अफगानिस्तान में तैनात अपनी सेनाओं को कुमुक पहुंचाने हेतु अमेरिकी गठबंधन के पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं बन पाएगी क्योंकि उसका मानना है कि अफगान सीमा से सटे उजबेकिस्तान पर रूस अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उससे अपने मार्गों का इस्तेमाल करने की मनाही करवा लेगा।
अफगानिस्तान पर रूसी कब्जे के दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने जिया-उल-हक को जिस आर्थिक पैकेज की पेशकश की थी उसे जिया ने ‘मूंगफली के चंद दाने’ करार देते हुए नकार दिया था। लेकिन जब रोनाल्ड रीगन ने कहीं ज्यादा आकर्षक पैकेज की पेशकश की थी, जिसमें एफ-16 जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू हवाई जहाज भी शामिल थे, तब पाकिस्तान ने अमेरिका की मदद करना स्वीकार कर लिया था। सच्चाई यह है कि न्यूयॉर्क में हुए 9/11 के हमले की रूपरेखा ओसामा बिन लादेन ने तैयार की थी, जो पाकिस्तान के एबटाबाद में छुपकर आराम से रहता रहा।
किंतु पाकिस्तान के पास और कोई विकल्प भी नहीं है सिवाय इसके कि वह खुद को अमेरिका के साथ खड़ा दिखाए। चाहे पाकिस्तान के जहन में यह भ्रम हो कि चीन उसे तमाम मुश्किलों से उबार लेगा, इसके बावजूद वह विश्व बैंक एवं जापान के प्रभाव वाले आईएमएफ और एडीबी की मदद पर काफी हद तक निर्भर करता है। विदेशी मुद्रा की अत्यंत तंगी झेल रहे पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने लगाने हेतु अमेरिका अपने पश्चिमी सहयोगी देशों और जापान पर जोर डालकर यह सुनिश्चित करवा सकता है कि विदेशी मुद्रा भंडार पर उसकी हालत और ज्यादा खस्ता हो जाए। पहले ही इंटरनेशनल फाइनेंस एक्शन टास्क फोर्स ने पाकिस्तान पर दबाव बना रखा है कि वह आतंकियों को मिलने वाले फंड पर रोक लगाए।
आज की तारीख में अमेरिका का सऊदी अरब पर खासा प्रभाव है जबकि पाकिस्तान सऊदी अरब की मेहरबानियों पर बहुत निर्भर है क्योंकि न सिर्फ उसे वहां से सस्ती दर पर तेल मिलता है बल्कि बड़ी संख्या में आप्रवासी पाकिस्तानी कामगारों द्वारा भेजी गई कमाई का योगदान उसके विदेशी मुद्रा भंडार में खासा है। ऐसे में देखना यह है कि अमेरिका किस प्रकार सऊदी अरब और उसके सहयोगी मुल्कों से पाकिस्तान को मिलने वाली मदद को हथियार बनाकर उसका चाल-चलन बदल पाएगा। इसी साल जून में पाकिस्तान में आम चुनाव होने हैं और वहां की राजनीति में सऊदी अरब की सैद्धांतिक सोच और पैसा काफी अहम भूमिका निभाता है। आने वाले महीनों में पाकिस्तान के अंदर जो कुछ भी घटित होगा, भारत उसे महज निर्विकार पक्ष के रूप से लेना गवारा नहीं कर सकता!

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