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लखनऊ : गोरखपुर में 43 और फूलपुर में 37.39 फीसदी मतदान, 12 फीसदी तक गिरावट

लखनऊ :  उत्तर प्रदेश की दो सबसे वीआईपी लोकसभा सीटों पर उपचुनाव की वोटिंग संपन्न हो गई है। फूलपुर और गोरखपुर की सीटों पर इस बार पिछले चुनावों के मुकाबले कम मतदान हुआ है। चुनाव आयोग के मुताबिक सीएम योगी आदित्यनाथ के गृहक्षेत्र गोरखपुर में शाम पांच बजे तक 43 फीसदी वोटिंग हुई, वहीं फूलपुर में 37.39 फीसदी मतदान हुआ है। आयोग से अंतिम जानकारी आने पर इस आंकड़े में थोड़ा-बहुत फेरबदल हो सकता है।
राज्य निर्वाचन कार्यालय के मुताबिक मतदान सुबह सात बजे शुरू होकर शाम पांच बजे तक चला और यह शांतिपूर्वक संपन्न हो गया। निर्वाचन आयोग के एक अधिकारी ने बताया कि कुछ बूथों पर ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) के खराब होने की शिकायतें आईं। तत्काल मशीनों को बदल दिया गया। इस बार मतदाताओं में उत्साह की कमी नजर आयी, जिसकी वजह से कम लोगों ने मतदान किया। स्वच्छ एवं निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित करने के लिए कड़े सुरक्षा इंतजाम किए गए थे।
2014 में इन दोनों सीटों पर बीजेपी ने बड़े अंतर से जीत हासिल की थी। यहां तक कि एसपी, बीएसपी और कांग्रेस को मिले सम्मिलित वोट भी बीजेपी के विजयी उम्मीदवार से कम थे। 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान फूलपुर में 50.20 फीसदी मतदान हुआ था, जबकि गोरखपुर में 54.64 प्रतिशत वोटिंग हुई थी। यानी मतदान में पिछले चुनाव के मुकाबले 11-12 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई है।
प्रदेश के सीएम और डेप्युटी सीएम की सीटों पर हुए चुनाव में गिरता वोट प्रतिशत आखिर किस पार्टी के पक्ष में वोटर का रुझान दिखा सकता है। क्या एसपी-बीएसपी के एक साथ आने से बीजेपी को मुश्किल होगी, या बीजेपी को सत्ता विरोधी रुझान का सामना करना पड़ सकता है। एक बार इन संभावनाओं पर गौर करते हैं।
दोनों ही लोकसभा सीटों पर शहरी इलाकों की कम वोटिंग बीजेपी के लिए चिंता वाली बात हो सकती है। उत्तर प्रदेश की फूलपुर लोकसभा सीट जिसका क्षेत्र इलाहाबाद के प्रमुख शहरी क्षेत्रों से लेकर यमुनापार के ग्रामीण इलाकों तक फैला हुआ है, बीजेपी की इस चिंता की सबसे प्रमुख वजह है। इलाहाबाद उत्तर विधानसभा में सबसे कम 21.65 फीसदी मतदान हुआ है। यह शहर का सबसे प्रबुद्ध इलाका माना जाता है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी भी इसी क्षेत्र में आती है। इसके अलावा मुरली मनोहर जोशी और प्रमोद तिवारी जैसे बड़े नेता भी इसी विधानसभा के निवासी हैं। कचहरी भी इसी इलाके में है।
डेप्युटी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे से खाली हुई इस सीट पर कम मतदान से बीजेपी के अंदरूनी संगठन में हलचल मची हुई है। जानकारों का मानना है कि शहर के प्रबुद्ध इलाकों के वोटरों के क्षेत्र में मतदान का आंकड़ा गिरने का नुकसान बीजेपी को हो सकता है।
एसपी-बीएसपी के वर्चस्व की सीट रही है फूलपुर
अगर अतीत पर गौर करें तो 5 विधानसभा सीटों वाली फूलपुर लोकसभा बीएसपी और एसपी के नेताओं के वर्चस्व वाली सीट कही जाती रही है। पूर्व में एसपी की ओर से जंग बहादुर पटेल अतीक अहमद और धर्मराज पटेल इस सीट पर लोकसभा के सांसद रह चुके हैं। वहीं ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम समीकरणों के साथ बीएसपी की ओर से कपिल मुनि करवरिया को भी 2009 के लोकसभा चुनाव में विजय मिल चुकी है। ऐसे में अगर कम वोटिंग के दौरान इन दोनों पार्टियों के गठबंधन की स्थिति में इनके नेता अपने कोर वोटर्स को बूथ तक पहुंचाने में कामयाब होते हैं जो इसका लाभ एसपी प्रत्याशी को मिल सकता है।1520834956btजानकारों का मानना है कि अगर इलाहाबाद के शहरी इलाकों में बीजेपी की वोटिंग कम होती है तो इसका सीधा लाभ एसपी को मिलेगा। दूसरी स्थिति यह भी है कि एसपी-बीएसपी के गठबंधन में इस सीट के पटेल, यादव, मुस्लिम और दलित वोटरों का गठजोड़ भी बीजेपी को झटका दे सकता है। वहीं दूसरी ओर पूर्व सांसद अतीक अहमद की निर्दलीय उम्मीदवारी की स्थिति में बीजेपी के स्थानीय नेता इस बात से आशान्वित हैं कि उनकी उम्मीदवारी से एसपी को होने वाला नुकसान बीजेपी के लिए संजीवनी सा हो सकेगा। हालांकि अतीक के असर वाली इलाहाबाद पश्चिम विधानसभा सीट पर भी 31 फीसदी मतदान ही हुआ है। जबकि बाकी तीन विधानसभा सीटों फाफामऊ (43त्न), सोरांव (45त्न) और फूलपुर (46.32त्न) में अपेक्षाकृत बेहतर मतदान हुआ है। 2017 के विधानसभा चुनाव को छोड़ दें, तो ये सीटें एसपी और बीएसपी के प्रभुत्व वाली रही हैं।
बीजेपी के लिए आंतरिक कलह एक बड़ी मुश्किल
इन सब के अलावा मीरजापुर के रहने वाले एक प्रत्याशी को फूलपुर की प्रतिष्ठित सीट पर स्थानीय नेताओं की अनदेखी करते हुए टिकट दे देना भी बीजेपी के लिए मुसीबत का सबब बन सकता है। जानकारों की माने तो मीरजापुर के निवासी और वाराणसी के मेयर रह चुके कौशलेन्द्र सिंह पटेल की उम्मीदवारी को लेकर स्थानीय नेताओं में असंतोष की स्थिति बनी हुई है, पार्टी को जिसका खामियाजा उठाना पड़ सकता है।
कहा जा रहा है कि डेप्युटी सीएम बनने के बाद उनके इस्तीफे से खाली हुई सीट पर केशव प्रसद मौर्य अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाना चाहते थे लेकिन जब पार्टी ने इसकी अनुमति नहीं दी तो उन्होंने नेतृत्व के फैसले पर कौशलेन्द्र सिंह पटेल को अपना समर्थन दे दिया। वहीं, फूलपुर के कुछ स्थानीय नेता जिन्हें 2017 के विधानसभा चुनाव में ध्यान रखने का आश्वासन दिया गया था वह भी इस सीट पर अपनी उम्मीदवारी चाहते थे लेकिन प्रादेशिक नेतृत्व ने अचानक से कौशलेन्द्र सिंह पटेल को पैराशूट प्रत्याशी बना दिया जिससे इन नेताओं के बीच असंतुष्टि की स्थिति देखने को मिली। ऐसे में आंतरिक असंतोष और कार्यकर्ताओं की नाराजगी से वोटिंग के आंकड़े पर यदि कोई असर पड़ा है, तो बीजेपी के लिए 2019 से पहले चिंता की बात होगी।
गोरखपुर के 43 फीसदी वोट में कौन भारी?
फूलपुर से करीब 250 किमी दूर गोरखपुर में भी 29 साल बाद संसदीय क्षेत्र की कमान गोरक्ष पीठ के बाहर होने जा रही है। सांसद का ताज किसे मिलेगा, यह तो 14 मार्च को तय होगा लेकिन योगी आदित्यनाथ का इन चुनावों में उम्मीदवार न होना और शाम चार बजे तक हुई कुल 43 फीसदी वोटिंग इस बार बीजेपी के विजय रथ पर अंकुश लगा सकती है।
गोरखपुर की स्थितियां इलाहाबाद से अलग तो हैं लेकिन सियासत का गणित विपक्ष के लिए भी उम्मीदें बढ़ाने वाला है। जिले में अंदरूनी ब्राह्मण बनाम ठाकुर की लड़ाई के बीच एसपी के प्रवीण निषाद अगर अपने कोर वोटर मुस्लिम, यादव और निषाद समाज के मतदाताओं को अपने पक्ष में करते हैं, तो इसका असर सीधे बीजेपी पर पड़ सकता है। वहीं इस सीट पर बीएसपी के गठबंधन का फायदा भी एसपी को मिलने की पूरी संभावना है।
गोरक्षपीठ के बाहर होगी गोरखपुर की कमान
दूसरा पक्ष यह कि सीट पर बीजेपी ने वर्तमान अध्यक्ष उपेंद्र शुक्ला को उम्मीदवार बनाया है। शुक्ला से पूर्व योगी आदित्यनाथ इस सीट पर 5 बार सांसद रह चुके हैं। कहा जाता है कि योगी के सांसद रहते गोरखपुर की सत्ता का निर्धारण गोरक्षपीठ से ही होता था। इसके अलावा आसपास के इलाकों में भी योगी के प्रभाव का असर चुनावी विजय से मिलता था। ऐसे में चूंकि बीजेपी ने अपनी प्रत्याशिता मठ गोरक्षपीठ के बाहर के एक कार्यकर्ता को सौंपी है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि बीजेपी की यह विजय पूर्व के मुकाबले इस बार एक तरफा होती नहीं दिख रही है। बीजेपी के कोर ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया वोटरों की संख्या अगर कम होती है, तो मेरठ की नगर निगम की तरह बीएसपी के वोटर मुस्लिम समुदाय और दलित का समीकरण साधकर एसपी के निषाद, मुस्लिम, यादव और अन्य पिछड़ा वर्ग समीकरण को सॉलिड वोटिंग से मजबूत कर सकते हैं।
 

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