
जगदलपुर : बस्तर क्षेत्र से बांसों के विलुप्त होने से यहां न केवल आदिवासी जीवन प्रभावित हो रहा है। बल्कि आदिवासी संस्कृति पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। आदिवासियों के जीवन पर बांसों के घटते कृषि का बहुत बुरा असर पड़ा है। ग्रामीण आदिवासी इससे जहां विभिन्न सामग्री बनाते हैं। वहीं बांस से निकलने वाले बास्ता को भोजन के रूप में प्रयोग करते हैं। इसके अलावा बांस की ओदली में तरह- तरह भाप के जरिए भोजन पकाते हैं।
आदिवासियों के जीवन पर बांसों के घटते कृषि का बहुत बुरा असर पड़ा है
बस्तर प्रकृति बचाओ के संस्थापक शरद वर्मा ने बताया कि कभी छत्तीसगढ़ कृषि क्षेत्र का अधिकांश भाग बांस के जंगलों से आच्छादित था। जिसमें कभी हाथी, मोर, तेदुंए निवास करते थे, लेकिन पिछलें 50 वर्षो से जिस गति से बांस की कटाई हुई है। इसका नतीजा यह है कि यहां के वनांचल में निवास करने वाले ग्रामीणों कों 20-25 रूपये में बांस खरीदना पड़ता है। आद्यौगिक उपयोग के नाम पर छत्तीसगढ़ के बांस वनों का बेरहमी से सफाया कर दिया गया है।
छत्तीसगढ़ कृषि क्षेत्र का अधिकांश भाग बांस के जंगलों से आच्छादित था
श्री वर्मा ने बताया कि खेती के विभिन्न भागों से काटकर लाये जाने वाले बांसों को रखने के लिये बड़े वन ग्राम को घेरकर बांसागार बनाये गये थे जो अब अक्सर खाली पड़े रहते हैं। ऐसे ही हालत वन लकडिय़ों को सुरक्षित रखने के लिए बने काष्ठागारों की है। सत्तर के दशक में सागौन रोपण, पाईन रोपण गहन वन प्रबंध और औद्योगिक योजना के नाम पर बेतहाशा वनों की कटाई हुई है।
बांसों को रखने के लिये बड़े वन ग्राम को घेरकर बांसागार बनाये गये थे
रही-सही कसर अतिउत्पादन के नाम पर वन की कटाई कर पूरी कर दी गयी। उन्होंने कहा कि वनों के विनाश का दुष्प्रभाव वन्य प्राणियों पर भी पड़ा है, जिनकी संख्या में खासी कमी दर्ज की गयी है ।
बस्तर के जन जीवन में गहरे तक समाये बांसों की समाप्ति की तरफ सरकने से कृषि के आर्थिक, सामाजिक, पहल तो प्रभावित हो रहे रहे हैं। पर्यावरण संतुलन पर भी इसका असर पड़ रहा है। जिसके दूरगामी नतीजे हो सकते हैं।