संपादकीय

कुलभूषण के बहाने बलूचिस्तान का खेल

पुष्परंजन की कलम से

सिक्के के दो पहलूओं को कूटनीति में एक साथ देखने की चेष्टा कम होती है। कुलभूषण जाधव की अपनी मां और पत्नी से मुलाकात का जो दृश्य टीवी के छोटे पर्दे पर नमूदार हो रहा था, लगभग उसी समय पेइचिंग में पाकिस्तान, चीन और अफग़ानिस्तान की त्रिपक्षीय बैठक चल रही थी। सुरक्षा, संपर्क जैसे कई विषयों के साथ, ‘इंटेलीजेंस शेयरिंग’ और बलूचिस्तान की रणनीति पर एक खाका तीनों मुल्क के विदेशमंत्री तैयार कर रहे थे, ताकि ग्वादर में सब-कुछ सुचारु रूप से चल सके। कुलभूषण जाधव एक ऐसा कार्ड है, जिसे पाकिस्तान ने बलूच आंदोलन को ठंडा करने के वास्ते भरपूर इस्तेमाल किया है। सोमवार की मुलाक़ात का जिस तरह से पाकिस्तान के फॉरेन ऑफिस ने दुरुपयोग किया है, उससे उसकी मंशा साफ हो जाती है। पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता डॉ. मोहम्मद फैसल ने तीन महत्वपूर्ण बातें कहीं। एक, कुलभूषण जाधव को बलूचिस्तान को अस्थिर करने के मकसद से भेजा गया था। बलूचिस्तान में चीन से फंडेड परियोजनाओं को कैसे बाधित किया जाए, यह डॉ. मोहम्मद फैसल के बयान का दूसरा मकसद था। तीसरा, पाकिस्तान का यह कहना कि हमने कुलभूषण जाधव तक भारतीय उच्चायोग को ‘डिप्लोमेटिक एक्सेस’ दिया, और मानवीय आधार पर उसकी मां व पत्नी को मिलने दिया, जिसका हमने ‘कमिटमेंट’ कर रखा था। सवाल यह है कि पाकिस्तान ने इस मुलाक़ात का अहद किससे किया था? क्या यह ‘कमिटमेंट’ अंतर्राष्ट्रीय अदालत से किया गया था, या फिर भारतीय विदेश मंत्रालय से?

कुलभूषण जाधव द्वारा बलूचिस्तान में चीनी परियोजनाओं को तबाह करने की कहानी गढक़र पाकिस्तान, पेइचिंग में बैठे अपने आकाओं को इस मामले में शामिल करने के प्रयास में है। उसके बदलते पैंतरे संकेत दे रहे हैं कि इस्लामाबाद इस पूरे प्रकरण को चीनी परियोजनाओं से चिपका रहा है। कुलभूषण जाधव का केस जानबूझकर खड़ा किया गया। जनवरी, 2016 की स्थिति को याद करें, उस समय बलूचिस्तान इनके काबू से बाहर हो रहा था, स्थानीय लोग विद्रोह के मूड में थे। आईएसआई एजेंटों को कुलभूषण जाधव के रूप में ईरानी बंदरगाह शहर चाबहार में एक ‘बकरा’ मिल गया।

3 मार्च 2016 को बलूचिस्तान की माश्केल नामक जगह पर कुलभूषण जाधव की गिरफ्तारी दिखाई गई। यह जगह चमन सीमा से लगी है। इसके बहाने पाकिस्तान ने एक तीर से कई शिकार किये। पाकिस्तान ने एक कहानी तो खड़ी कर दी कि भारत, बलूचिस्तान में रॉ का एजेंट भेजकर विद्रोह का माहौल बना रहा है। इस गिरफ्तारी से पहले निर्वासित बलूच नेता ब्रह्मदा बुगती को जेनेवा से भारत लाकर शरण देने की तैयारी लगभग हो चुकी थी। उस पूरी योजना को भारत सरकार ने विवश होकर ’डीप फ्रीजर’ में डाल दिया।

10 अप्रैल, 2017 को पाकिस्तानी सैन्य अदालत (एफजीसीएम) ने जिस तरह से कुलभूषण जाधव को मौत की सज़ा सुनाई, और हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने 18 मई 2017 को स्टे दिया है, वह पाक क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के दोहरे रवैये पर कई सवाल खड़े करता है। पाकिस्तान की हालत तब पस्त हो जाती है, जब अमेरिका का कोई जासूस उसके यहां पकड़ा जाता है। 2011 में अमेरिकी नागरिक मैथ्यू क्रैग बैरेट बेनज़ीर भुट्टो अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पकड़ा गया था। उसे कुछ दिन गेस्ट हाउस में रखने, ‘खातिर तवज्जो’ के बाद वापस अमेरिका भेज दिया गया। मैथ्यू क्रैग बैरेट इस घटना से पूर्व एक बार और पाकिस्तान में गिरफ्तार हुआ था। एक और अमेरिकी नागरिक रेमंड डेविस ने 27 जनवरी, 2011 को लाहौर में दो पाकिस्तानियों को पीछा करते समय उन्हें गोलियों से उड़ा दिया था। उसे ‘विएना कन्वेंशन’ के तहत डिप्लोमेटिक छूट का मामला बनाकर ससम्मान अमेरिका भेज दिया गया। रेमंड डेविस सीआईए का जासूस था। उसके विरुद्ध पाकिस्तान में कोर्ट मार्शल क्यों नहीं हुआ? इस प्रश्न को पूछा जाना चाहिए। जब पश्चिमी देशों के जासूस इनकी नजऱ में आते हैं, तब पाक सेना और खुफिया के लोग किस तरह दुम दबाये आगे-पीछे करते हैं, ऐसे उदाहरण कई हैं।

भारतीय को मृत्युदंड देने का काम पाकिस्तान पहले भी कर चुका है। पाकिस्तान ने सबसे पहले एक भारतीय नागरिक शेख़ शमीम को 1999 में फांसी पर लटका दिया था। 1988 में वाघा सीमा पार उसे पकड़ कर जासूसी का आरोप लगा दिया गया था। सरबजीत सिंह का केस सबसे बहुचर्चित था। उसे कोट लखपत जेल में 26 अप्रैल, 2013 को उसके साथ रह रहे क़ैदियों ने इतना पीटा कि हफ्ते भर बाद उसकी मौत 2 मई, 2013 को हो गई। सरबजीत को मुलतान, फैसलाबाद, और लाहौर में विस्फोटों के मामले में फंसाया गया था, जिसमें 14 पाकिस्तानियों की मौत हो गई थी। जिस तरह जेल में सरबजीत को पीट-पीट कर मारा गया था, इस घटना के ठीक एक माह बाद जम्मू-कश्मीर जेल में एक पाकिस्तानी क़ैदी को दूसरे क़ैदियों ने उसी बर्बरता से मार डाला था। मानवाधिकार की नजऱ से देखें, तो यह बिल्कुल ग़लत था। मगर, जो लोग बदले की आग में जल रहे थे, उनके जिगरे को ठंडक मिली होगी। उसका दूसरा व्यावहारिक पक्ष यह भी है। यह काम उस सरकार के समय हुआ, जिसे भ्रष्ट, शांत, निकम्मी, और मौन रहने वाली सरकार कहकर कोसा जाता है।

यों, कभी-कभार पाकिस्तान होश में भी रहता है कि उसे क्या करना चाहिए। 2008 में तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने 35 साल तक कैद में रहे कश्मीर सिंह को रिहा करने का आदेश दिया था। 1973 में पकड़े गये कश्मीर सिंह जब भारत लौटे तो उनका स्वागत हीरो की तरह हुआ। कश्मीर सिंह ने पीटीआई को दिये इंटरव्यू में स्वीकार भी किया था कि वे जासूस थे, और अपने देश के वास्ते ड्यूटी कर रहे थे। एक और भारतीय रवीन्द्र कौशिक, जासूसी के आरोप में मुलतान जेल में सोलह साल से बंद थे, जिनकी मौत 2001 में टीबी से हो गई।

यह ध्यान देने की बात है कि जितने भी भारतीय पाकिस्तान में पकड़े गये, उन पर मुक़दमा असैनिक अदालत में ही चलाया गया। कुलभूषण जाधव का केस सैनिक अदालत में, वह भी गुपचुप चलाया जाना अपने-आप में अनोखा है। इसके हवाले से एक सवाल तो बनता है कि हमारी खुफिया एजेंसियों को इस बारे में ख़बर क्यों नहीं लगी?

इस पूरे घटनाक्रम का एक दिलचस्प पहलू जमात-उद- दावा का सरगना हाफिज़ सईद है, जो देखते-देखते नेता बन गया है। पाकिस्तान में 2018 का आम चुनाव लडऩे के वास्ते, हाफिज सईद की ‘मिल्ली मुस्लिम लीग’ को हर सुविधाएं शासन की ओर से मुहैया कराई जा रही हैं। बलूचिस्तान में चीनी परियोजनाएं महफूज़ रहें, क्या इस वास्ते पेइचिंग की आतंक के आका हाफिज़ सईद से कोई डील हुई है?

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