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वह व्यक्ति जिसने संविधान लिखा, लेकिन एक सीट भी नहीं जीत सका

डॉ. भीमराव अंबेडकर का जीवन सामाजिक क्रांति और बौद्धिक संघर्षों से भरा रहा, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में उनका अनुभव कई मायनों में कटु और निराशाजनक रहा । उन्होंने पूरी ईमानदारी और दूरदृष्टि के साथ राजनीति में भागीदारी की, लेकिन अंततः उन्हें राजनीति से मोहभंग हो गया । आइए फोर्थ आई न्यूज पर आज हम विस्तार से जानते हैं कि अंबेडकर ने कब, कैसे और क्यों चुनाव लड़े — और कैसे इन हारों ने उन्हें राजनीति से दूर कर दिया।

  1. राजनीति में प्रवेश

डॉ. अंबेडकर का राजनीति में प्रवेश दलितों के अधिकारों की लड़ाई को एक ठोस मंच देने के लिए हुआ।
1936 में उन्होंने “स्वतंत्रता के लिए समानता” के विचार के तहत “स्वतंत्र पार्टी यानि (Independent Labour Party)” बनाई, जो श्रमिकों और दलितों की आवाज़ थी।

1937 का बॉम्बे प्रांतीय विधानसभा चुनाव

अंबेडकर ने 1937 में बॉम्बे प्रांतीय विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया। उनकी पार्टी Independent Labour Party ने 15 सीटें जीतीं — ये एक महत्वपूर्ण राजनीतिक जीत थी । उन्होंने दलितों के लिए न्यूनतम मजदूरी, भूमि सुधार, और श्रमिक हितों पर जोर दिया । लेकिन कांग्रेस ने इन्हें कभी खुले तौर पर सहयोग नहीं दिया। ये समय था जब अंबेडकर को लगा कि राजनीति के ज़रिए दलितों की दशा बदली जा सकती है ।

1946 का संविधान सभा चुनाव में पहली बड़ी हार

अंबेडकर को संविधान सभा में जाने के लिए चुनाव लड़ना पड़ा। बॉम्बे प्रेसीडेंसी से कांग्रेस ने उनके खिलाफ उम्मीदवार उतार दिए, और अंबेडकर चुनाव हार गए । उन्हें संविधान सभा में शामिल होने का मौका बंगाल से मिला, जब शरणार्थी सीट खाली हुई और कांग्रेस के कुछ नेताओं खासकर जोगेंद्रनाथ मंडल की मदद से उन्हें वहाँ से चुना गया। ये पहला झटका था, जिससे उन्हें महसूस हुआ कि कांग्रेस उनके रास्ते में एक बड़ी दीवार बन रही है।

1951 का पहला आम चुनाव में दूसरी बड़ी हार.

अंबेडकर ने भारत के पहले लोकसभा चुनाव जो 1951-52 में हुए थे, उसमें हिस्सा लिया। उन्होंने बॉम्बे जो अब मुंबई है, उसकी दादर सीट से चुनाव लड़ा। उनके खिलाफ कांग्रेस ने एनएस काजीरवानी को उतार दिए, जिन्हें भारी समर्थन मिला। और अंबेडकर की चुनाव में बड़ी हार हुई । अंबेडकर चुनाव हार गए — ये उनके लिए एक गहरी व्यक्तिगत और वैचारिक चोट थी । दलितों की बड़ी आबादी होते हुए भी, जातिगत राजनीति और कांग्रेस की लोकप्रियता ने उन्हें किनारे कर दिया ।

1954 का उपचुनाव – आखिरी कोशिश और अंतिम हार

हार से निराश होने के बावजूद अंबेडकर ने एक और मौका लिया । उन्होंने 1954 में बंडा, उत्तर प्रदेश से उपचुनाव लड़ा। कांग्रेस ने फिर से एक मजबूत उम्मीदवार खड़ा किया, और वे दूसरी बार भी लोकसभा में नहीं जा सके। इस हार के बाद उन्होंने कहा: “This country does not deserve me in politics.”

राजनीति से मोहभंग और अंत में वापसी बौद्ध धर्म में

लगातार दो चुनावी हार, कांग्रेस की लगातार उपेक्षा, और हिंदू समाज की सामाजिक जड़ता से अंबेडकर बेहद निराश हो चुके थे । उन्होंने 1955 में राजनीति को धर्म से ऊपर नहीं माना जा सकता” कहते हुए भारतीय बौद्ध महासभा की नींव रखी । उन्होंने 1956 में बौद्ध धर्म ग्रहण किया, और कहा कि ये एक “राजनीतिक नहीं, आत्मिक निर्णय” है – लेकिन इसमें भी उनका राजनीतिक संदेश छुपा था, “अगर सत्ता नहीं बदल सकती, तो धर्म बदल दो।

कुल मिलाकर अंबेडकर की राजनीतिक हार, दरअसल भारत की जातिगत और वोट आधारित राजनीति की जीत थी ।
उनके विचार, दृष्टिकोण और सुधार की योजना उस समय की राजनीति के लिए बहुत आगे की बात थी । वे चुनाव हार गए, लेकिन विचारों की लड़ाई में आज भी अमर हैं । और आज भी हमारे देश के संविधान की जबजब बात होती है, तबतब भीमराव अंबेडकर का चेहरा ही सबसे पहले नजर आता है । डॉक्टर भीम राव अंबेडकर के चुनावी मैदान में असफलता को आप किस नजरिये से देखते हैं, अपनी राय भी जरूर कमेंट करें ।

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