अंबेडकर अनफ़िल्टर्ड: 10 विवादास्पद क्षण जिन्होंने इतिहास बना दिया

भारत के इतिहास में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जिनका जीवन सिर्फ व्यक्तिगत संघर्ष नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की मिसाल बन जाता है। डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर ऐसे ही व्यक्तित्व थे। वे न केवल भारतीय संविधान के निर्माता थे, बल्कि करोड़ों दलितों, शोषितों और वंचितों के अधिकारों की आवाज़ भी। अंबेडकर की राजनीति, सामाजिक दर्शन और धार्मिक दृष्टिकोण ने भारत के सामाजिक ताने-बाने को झकझोर दिया। लेकिन जहां अंबेडकर को दलितों के मसीहा के रूप में देखा गया, वहीं उनकी विचारधारा और क्रांतिकारी कदमों ने उन्हें कई विवादों में भी खड़ा किया। उन्होंने सिर्फ सत्ता से ही नहीं, बल्कि धर्म, परंपरा, समाज और यहां तक कि समय के सबसे प्रभावशाली नेताओं से भी टकराव लिया। फोर्थ आई न्यूज पर इस खास विश्लेषण में हम डॉ. अंबेडकर से जुड़े 10 बड़े विवादों को विस्तार से जानेंगे – जिनसे उनकी छवि नायक भी बनी और विरोध का विषय भी।
मनुस्मृति दहन (1927)
1927 में महाड़ सत्याग्रह के दौरान अंबेडकर ने सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति की प्रतियां जलाईं। उनका मानना था कि ये ग्रंथ जातिवाद की नींव है और शूद्रों को गुलाम बनाए रखने का धार्मिक आधार है। ये घटना सिर्फ एक प्रतीकात्मक विरोध नहीं था, बल्कि एक सीधा हमला था ब्राह्मणवादी सत्ता पर। इस कदम ने उन्हें कट्टरपंथियों की आंख की किरकिरी बना दिया और उन्हें “धर्मविरोधी” तक कहा गया।
पूना पैक्ट और गांधी से टकराव (1932)
ब्रिटिश सरकार ने जब दलितों को अलग निर्वाचक मंडल देने की बात मानी, तो अंबेडकर ने इसे ऐतिहासिक जीत माना। लेकिन महात्मा गांधी ने इसका विरोध करते हुए आमरण अनशन शुरू कर दिया। दोनों के बीच हुआ समझौता, जिसे “पूना पैक्ट” कहा जाता है, के कारण अंबेडकर को दलित अधिकारों में कटौती करनी पड़ी । वे इस समझौते से नाखुश थे और इसे “एक राजनीतिक हार” मानते थे।
हिन्दू धर्म का त्याग और बौद्ध धर्म की दीक्षा (1956).
अंबेडकर ने स्पष्ट कहा था, “हिंदू धर्म ने मुझे मनुष्य नहीं समझा, मैं उसे धर्म नहीं मानता।” और अंततः 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने नागपुर में बौद्ध धर्म अपनाया, वो भी अपने लाखों अनुयायियों के साथ। ये सिर्फ धार्मिक परिवर्तन नहीं था, बल्कि एक सामाजिक क्रांति थी। लेकिन कई वर्गों ने इसे हिन्दू धर्म के विरुद्ध विद्रोह माना।
हिंदू कोड बिल विवाद और इस्तीफा (1951).
अंबेडकर ने एक प्रगतिशील हिंदू कोड बिल पेश किया, जिससे महिलाओं को संपत्ति, तलाक और उत्तराधिकार जैसे अधिकार मिलते । लेकिन संसद में इसका विरोध हुआ और बिल पास नहीं हो सका । आहत होकर अंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। ये एक ऐसा क्षण था जब उन्होंने भारतीय राजनीति में अपने सीमित प्रभाव को महसूस किया।
आरक्षण व्यवस्था की नींव और उसका विरोध.
संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण देने का प्रावधान अंबेडकर की देन थी। उन्होंने इसे सामाजिक न्याय की पहली सीढ़ी माना। लेकिन आरक्षण को लेकर शुरू से ही ये विवाद रहा कि क्या ये “प्रतिभा का गला घोंटता है” ये बहस आज भी जारी है।
मुस्लिम लीग और पाकिस्तान पर दृष्टिकोण.
अंबेडकर ने अपनी किताब “Pakistan or the Partition of India” में ये तर्क दिया कि भारत और पाकिस्तान का विभाजन वास्तविकता के अनुसार ही होना चाहिए। उन्होंने लिखा कि “अगर मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों के लोग अलग देश चाहते हैं, तो उन्हें रोका नहीं जाना चाहिए।” उनके इस नजरिए को कई लोगों ने “राष्ट्रविरोधी” कहा ।
ब्राह्मणवाद के खिलाफ तीखे हमले
अंबेडकर ने कई मौकों पर ब्राह्मणवाद को “भारत की सामाजिक बीमारी” कहा। उनकी किताब “Annihilation of Caste” में उन्होंने ब्राह्मणिक व्यवस्था पर करारा हमला किया । इस किताब को लेकर इतना विवाद हुआ कि जिस संस्था ने उन्हें बुलाया था, उसने अंबेडकर का भाषण ही रद्द कर दिया।
रामायण और महाभारत की आलोचना
अंबेडकर का मानना था कि राम और कृष्ण जैसे पात्रों को “आदर्श” बनाकर असमानता को महिमामंडित किया गया है। उन्होंने राम के सीता त्याग और कृष्ण के बहुपत्नी संबंधों को “नैतिक रूप से खोखला” कहा। इससे उन्हें धार्मिक ग्रंथों का अपमान करने वाला कहा गया।
संविधान की आलोचना
अंबेडकर ने एक बार कहा,”ये संविधान जितना अच्छा है, उतना ही बेकार भी हो सकता है, अगर उसे चलाने वाले लोग अच्छे नहीं होंगे।” उन्होंने बाद में ये भी कहा कि ये संविधान “समाजवादी या श्रमिक वर्गों के हित में नहीं है।” ये विरोधाभास कई लोगों के लिए चौंकाने वाला था।
कांग्रेस और नेहरू से दूरी
भले ही अंबेडकर ने आज़ादी के बाद नेहरू सरकार में कानून मंत्री का पद स्वीकार किया, लेकिन विचारधारा और प्राथमिकताओं में हमेशा टकराव रहा। हिंदू कोड बिल, जाति व्यवस्था और आर्थिक नीति पर मतभेद इतने बढ़े कि अंबेडकर ने कांग्रेस से दूरी बना ली और बाद में “स्वतंत्र मजदूर दल” जैसी पार्टी बनाई।
डॉ. अंबेडकर का जीवन विवादों से भरा जरूर था, लेकिन वे विवाद सिर्फ विरोध नहीं थे – वे विचारों की क्रांति थे । उन्होंने जिन मुद्दों को उठाया, वे आज भी भारत की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक बहसों के केंद्र में हैं। अगर समाज ने अंबेडकर को सिर्फ संविधान निर्माता तक सीमित कर दिया, तो ये उनके जीवन और संघर्ष का अपमान होगा । उनका असली योगदान तो उस सवाल उठाने वाले साहस में है, जो उन्होंने हर स्थापित व्यवस्था से किया ।