संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय, 8 नवंबर : असली मुजरिम गिरफ्तार, तो पहले से बंदी बेकसूर को क्या मिलेगा मुआवजा?

दिल्ली राजधानी क्षेत्र के एक बड़े अंग्रेजी स्कूल रयान इंटरनेशनल के एक बच्चे की हत्या से पूरे देश का मीडिया उस पर फोकस हो गया था, और हरियाणा में मौजूद इस स्कूल के एक कंडक्टर को वहां की पुलिस ने जनता के भारी दबाव के बीच गिरफ्तार भी कर लिया था। इसके बाद इस मामले की जांच सीबीआई को दे दी गई थी, और सीबीआई ने अब उसी स्कूल के ग्यारहवीं के एक छात्र को गिरफ्तार किया है जिस पर आरोप है कि उसने इम्तिहान आगे बढ़वाने के चक्कर में इस बच्चे की हत्या कर दी थी। अब सवाल यह खड़ा होता है कि इससे वह कंडक्टर बेकसूर साबित हो रहा है तो उसके इतने अपमान और उसकी इतनी प्रताडऩा के लिए कौन जिम्मेदार है? 
यह बात पुलिस के मामले में जगह-जगह सामने आती है। कई जगह पुलिस सत्ता की साजिश में भागीदार बनकर इस तरह के काम करती है जो कि कुछ वक्त के लिए काम की रहती है, लेकिन अदालत में लंबे समय तक खड़ी नहीं होता। दूसरी किस्म के मामले रहते हैं मीडिया और जनता के दबाव में किसी को भी बकरा बनाकर पेश कर देना, और प्रदर्शन-दबाव को शांत करना। इसके बाद जब यह गिरफ्तारी गलत साबित होती है, तब प्रदर्शन करने वाले कहीं नहीं रहते, और यह असली मुजरिम की गिरफ्तारी तक के लिए एक बेकसूर को धांस देने का काम रहता है, और पुलिस कई बार सोच-समझकर यह काम करती है। बाद में जब झूठ साबित होता है, तो उस वक्त असली मुजरिम भी पकड़ा जा चुका रहता है, तो पुलिस की बदनामी काफी हद तक धुल जाती है। इस मामले में अगर सीबीआई ने भी कोई चूक नहीं की है, तो ऐसा ही कुछ हुआ दिख रहा है। 
लोगों को याद होगा कि इसी दिल्ली में कई बरस से आरूषि हत्याकांड चले आ रहा है जिसमें उसके मां-बाप को ही लोवर कोर्ट ने सजा देकर जेल भेज दिया था, और अब हाईकोर्ट ने उन्हें बरी किया है। अपनी ही बच्ची की हत्या में अगर मां-बाप को बेकसूर होते हुए भी बरसों की सजा काटनी पड़े, तो ऐसी न्याय व्यवस्था पर धिक्कार है क्योंकि कहने के लिए तो न्याय व्यवस्था यह कहती है कि चाहे सौ गुनहगार छूट जाएं, एक भी बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए। लेकिन जब भी किसी बेकसूर को बदनामी और कैद के बाद रिहा होते देखा जाता है, तो फिर गुनहगारों की गिरफ्तारी भी  लोगों को फर्जी लगती है। ऐसी हालत में सरकार की तरफ से एक मुआवजे का इंतजाम होना चाहिए कि लोग अगर ऐसा नुकसान झेलते हैं, तो उनकी साख के नुकसान और उनकी जिंदगी की प्रताडऩा के एवज में उन्हें अदालत सरकार से एक मुआवजा दिलवाए। सरकार चाहे तो ऐसे मुआवजे के लिए कोई बीमा भी करवा सकती है ताकि देश में जब आखिरी अदालत से कोई फैसला हो जाए, तो उसके बाद लोगों को बेकसूरी पर मुआवजा मिले। 
दूसरी बात यह कि मीडिया या जनता को भी यह समझना चाहिए कि जांच अधिकारियों पर अनावश्यक सार्वजनिक दबाव समाज के ही हितों के खिलाफ रहता है। असली मुजरिम खुले घूमते रहते हैं, जिनसे समाज को खतरा रहता है, और दूसरी तरफ किसी बेकसूर को पकड़कर जनदबाव को शांत करने के लिए जेल में ठूंस दिया जाता है। हम उम्मीद करते हैं कि दिल्ली की इस घटना से बाकी का देश भी एक सबक लेगा और पुलिस या किसी दूसरी जांच एजेंसी को वक्त का अल्टीमेटम देना बंद करेगा। (Daily Chhattisgarh)

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