क्या बीजेपी सवर्ण आरक्षण के जरिए किसानों की नाराज़गी भी कम करने की कोशिश में है ?
नरेंद्र मोदी सरकार की कैबिनेट ने लोकसभा चुनावों से ठीक पहले सवर्णों को आर्थिक आधार पर नौकरियों और शिक्षा में 10 फीसदी आरक्षण को मंजूरी देकर एक नई बहस खड़ी कर दी है. सरकार ने तेजी दिखाते हुए मंगलवार को लोकसभा में संविधान संशोधन बिल का मसौदा भी पेश कर दिया. आर्थिक पिछड़ेपन को आधार बनाकर इस आरक्षण के लाभ के लिए योग्यता का जो पैमाना बनाया गया है उससे ये साफ़ है कि इस दांव से बीजेपी न सिर्फ एससी/एसटी एक्ट के चलते नाराज़ हुए अपने कोर वोट बैंक को वापस हासिल करना चाहती है, बल्कि ग्रामीण इलाकों में और खासतौर पर किसानों की नाराज़गी भी कम करने की कोशिश में है.
क्या हैं योग्यताएं ?
सवर्ण आरक्षण सिर्फ उन्हीं सवर्णों को मिलेगा जिनकी सालाना कमाई 8 लाख रुपये से कम होगी. इसके अलावा आरक्षण के हकदार वे ही रहेंगे जिनके पास पांच एकड़ से कम जमीन होगी. सूत्रों के मुताबिक, EWS कैटेगरी भी स्पष्ट कर दी गई है. यानी आरक्षण का फायदा किसे मिलेगा, इसका भी निर्धारण कर दिया गया है. आरक्षण के दायरे में ये सवर्ण आएंगे:
-आठ लाख से कम सालाना आमदनी हो
-कृषि भूमि 5 हेक्टेयर से कम हो
-घर है तो 1000 स्क्वायर फीट से कम हो
-निगम में आवासीय प्लॉट है तो 109 गज (यार्ड) से छोटा हो
-निगम से बाहर प्लॉट है तो 209 गज (यार्ड) से छोटा हो
जानकारों का मानना है कि आरक्षण की हद में आने के लिए जिस तरह की शर्तें रखी गई हैं उनका सीधा फायदा सवर्ण जातियों से आने छोटे किसानों को होता नज़र आ रहा है. गौरतलब है कि बीते 30 सालों में जनसंख्या वृद्धि के चलते ग्रामीण इलाकों में बड़े किसान कम हुए हैं और छोटी-छोटी जोत वाले किसान और भूमिहीन मजदूर किसानों की संख्या तेजी से बढ़ी है. इस जनसंख्या में जो सवर्ण जातियों की हिस्सेदारी है उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था. इस आरक्षण से उन घरों की आय में वृद्धि के लिए रोज़गार के रास्ते भी खुलेंगे. गौरतलब है कि बीजेपी को लगातार ग्रामीण इलाकों में हो रहे चुनावों में में हार का सामना करना पड़ रहा है.
इसे ग्रामीण इलाके के परिवारों की आय में हुई वृद्धि को आधार बनाकर भी समझा जा सकता है. यूपीए-2 के सालों में देखा जाए तो हर साल आय में करीब 19.91%, 18.20% और 15.87 फीसदी की ग्रोथ दर्ज की गई. जबकि बीते चार सालों में आमदनी में 7.2%, 4.7%, 5.5% और 5.2 फीसदी की ग्रोथ रही. किसानी से जुड़े परिवार न सिर्फ आय में कम वृद्धि को झेल रहे हैं, बल्कि अपनी उपजाई हुई फसलों पर भी उन्हें कम मुनाफा मिल रहा है जिसका सीधा असर चुनावों के नतीजों पर भी देखने को मिला है. भले ही मोदी सरकार ने कर्ज माफी की जगह किसानों की आय दोगुनी करने के का वादा किया हो, लेकिन नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डवलपमेंट यानी नाबार्ड का सर्वे कह रहा है कि बीते चार सालों में किसानों की आय सिर्फ 2505 रुपए ही बढ़ सकी है. गांवों में रहने वाले 41% से ज्यादा परिवार अभी भी कर्जे में दबे हैं और इनमें से 43% वो हैं जिनकी आय कृषि पर निर्भर हैं, और इन परिवारों में सवर्ण जातियों की भी हिस्सेदारी है.
ग्रामीण इलाकों में बीजेपी के खिलाफ नाराज़गी
हाल ही में हुए पांच राज्य के विधानसभा चुनावों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि हिंदी पट्टी के ग्रामीण इलाकों में बीजेपी के लिए समर्थन लगातार घट रहा है. तीनों राज्यों की कुल 424 ग्रामीण इलाकों की सीटों में से बीजेपी के हिस्से सिर्फ 153 सीटें आई हैं, जबकि 236 सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की है. सरकारी आंकड़ों पर नज़र डालें तो इसकी सबसे बड़ी वजह है कि यूपीए-2 के मुकाबले ग्रामीण परिवारों की आमदनी की ग्रोथ 20% से घटकर 5% पर आ गई है. मध्य प्रदेश की बात करें तो इस राज्य की कुल 230 सीटों में 184 ग्रामीण सीटें हैं. साल 2013 में बीजेपी ने इनमें से 122 पर जीत हासिल की थी, लेकिन 2018 में उसके हिस्से सिर्फ 84 सीटें ही आई हैं.
उधर, कांग्रेस के पास 2013 में 56 सीटें थीं, जबकि इस बार उसने ग्रामीण इलाके की 95 सीटों पर कब्ज़ा जमाया है. राजस्थान की कुल 200 विधानसभा सीटों में से 162 सीटें ग्रामीण हैं. साल 2013 में बीजेपी ने इनमें से 131 सीटें जीती थीं, जबकि 2018 में उसके हिस्से सिर्फ 56 सीटें ही आई हैं. उधर कांग्रेस के पास 2013 में सिर्फ 18 सीटें थीं, जबकि इस बार उसने ग्रामीण इलाकों की 83 सीटों पर जीत हासिल की है. छत्तीसगढ़ की कुल 90 सीटों में से 78 ग्रामीण इलाकों की हैं. बीजेपी ने 2013 में ग्रामीण इलाकों की 41 सीट जीती थीं लेकिन 2018 में ये आंकड़ा पर पहुंच गया है, जबकि कांग्रेस की सीटें 35 से बढ़कर 58 हो गई हैं.
कर्जमाफी न करके फंस गयी है बीजेपी!
बता दें कि मोदी सरकार ने कर्जमाफी की जगह किसानों की आय दोगुनी करने के लिए अशोक दलवई की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी जो कृषि सुधारों संबंधी अपनी रिपोर्ट सौंप चुकी है. लेकिन पिछले कुछ विधानसभा चुनावों के नतीजों के आधार ये बात सही नज़र आती है कि जिस भी पार्टी ने सत्ता में आकर किसानों का कर्ज माफ़ करने की घोषणा की, ग्रामीण इलाकों में उसे बढ़त मिलती हुई नज़र आई. उत्तर प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक और हाल ही में हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों को इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने साल 2008 में किसानों का 72 हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ किया और उसे 2009 लोकसभा चुनावों में इसका सीधा फायदा भी हुआ.
2014 में पीएम मोदी ने भी किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था. साल 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कर्जमाफ़ी का वादा किया और ग्रामीण इलाकों में उसे अभूतपूर्व सफलता हासिल हुई. 2017 के पंजाब विधानभा चुनाव और 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में भी कर्ज माफी का ये फॉर्मूला हिट रहा. मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने 10 दिन में किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया था, हालांकि अब ये सवाल भी उठ रहा है कि क्या 2019 लोकसभा चुनावों से पहले मोदी सरकार 26.3 करोड़ किसानों का 4 लाख करोड़ रुपए का कर्ज माफ़ करने के लिए तैयार है? बहरहाल नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डवलपमेंट यानी नाबार्ड का सर्वे कह रहा है कि बीते चार सालों में किसानों की आय सिर्फ 2505 रुपए ही बढ़ सकी है. जानकारों की माने तो कर्जमाफी न करने के नीतिगत फैसले पर सरकार फंस गई है और ग्रामीण इलाके के सवर्ण वोट बैंक को साधने के लिए भी 10% आरक्षण का दांव खेला गया है.