लोकसभा चुनाव 2019: विपक्षी एकता सत्ता पक्ष पर पड़ सकता है भरी

चुनावी भविष्यवाणी एक मजेदार खेल है. अलग-अलग अनुमान आते हैं और वनडे मैच की तरह रिक्वायर्ड रेट हमेशा बदलता रहता है. अटकलबाजी उस समय तक चलती रहती है, जब तक अंतिम नतीजों का एलान नहीं हो जाता. लोकसभा चुनाव की तारीख घोषित होने में अभी लगभग महीने भर का वक्त शेष है, लेकिन माहौल कुछ ऐसा बन चुका है, जैसे कल ही नतीजे आने वाले हों.
दो बड़े चुनावी सर्वे ने राजनीतिक बहस को और गर्मा दिया है. एबीपी न्यूज़ और इंडिया टुडे दोनों के सर्वे नतीजे लगभग एक जैसे हैं. इनका सार यह है कि अगर अभी चुनाव हुए तो एनडीए बहुमत से 30 से 40 सीटें दूर रह जाएगा. अपने दम पर बीजेपी बहुत मुश्किल से 200 के आंकड़े को छू पाएगी.
हमें यह याद रखना चाहिए भारत की चुनावी राजनीति का एक खास पैटर्न है. यहां जीतने वाले दल या गठबंधन को जितने वोट मिलते हैं, वो बाकी पार्टियों को मिले वोट के मुकाबले हमेशा कम होते हैं. आजाद भारत के सबसे लोकप्रिय राजनेता पंडित जवाहर लाल नेहरू के वोटों का आंकड़ा भी कभी 45 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पाता था. इसका मतलब यह हुआ कि लोकप्रियता के शिखर पर होने के बावजूद उस जमाने के आधे से ज्यादा मतदाता उन्हें वोट नहीं देते थे.
विपक्षी एकता का पहला और सबसे अभूतपूर्व उदाहरण 1977 का लोकसभा चुनाव था. इमरजेंसी की वजह से अलोकप्रिय होने के बावजूद इंदिरा गांधी राजनीतिक रूप से बहुत ताकतवर थीं. उनके करिश्माई व्यक्तित्व के मुकाबले खड़े होने लायक कोई चेहरा विरोधी दलों के पास नहीं था, लेकिन विपक्ष चमत्कारिक रूप से एकजुट हो गया.
अलग-अलग और परस्पर विरोधी विचारधारा वाली कई पार्टियों ने अपना विलय किया और जनता पार्टी अस्तित्व में आई. जनता पार्टी में दक्षिणपंथी जनसंघ के लोग थे, जेपी और लोहिया को विचारधारा से प्रभावित समाजवादी लोग थे और खुद को गांधीवादी बताने वाले बहुत से कांग्रेसी भी थे. इस एकजुटता का नतीजा यह हुआ कि इंदिरा गांधी बुरी तरह हार गईं और 30 साल में पहली बार कांग्रेस पार्टी केंद्र की सत्ता से बेदखल हुई
दूसरा उदाहरण 1989 के लोकसभा के चुनाव का है. रिकॉर्ड तोड़ बहुमत से सत्ता में आनेवाले राजीव गांधी के चमकते करियर पर बोफोर्स का ग्रहण लग गया. विपक्ष ने इस मुद्दे को जोर-शोर से भुनाया. उस दौरान लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में राम-मंदिर का आंदोलन भी चल रहा था, जिसे बाकी विपक्ष सांप्रादायिक और विभाजनकारी मानता था.
लेकिन बीजेपी से गहरे वैचारिक मतभेद के बावजूद जनता दल ने उसके साथ चुनाव पूर्व समझौता किया. चुनाव नतीजों के बाद वी.पी सिंह को दक्षिणपंथी बीजेपी के साथ लेफ्ट पार्टियों ने भी समर्थन दिया, ताकि राजीव गांधी को सत्ता में आने से रोका जा सके.
यह दो उदाहरण साबित करने के लिए काफी हैं कि अगर पूरा विपक्ष तय कर ले तो ताकतवर से ताकतवर राजनेता को दोबारा सत्ता में आने से रोका जा सकता है. बीजेपी के पूर्व नेता और एंटी मोदी मुहिम में जोर-शोर से शामिल यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी लगातार विपक्ष को याद दिला रहे हैं कि उनके पास 69 परसेंट वोट हैं. हालांकि यह एक तरह का सरलीकरण भी है. तमाम गैर-बीजेपी वोट को बीजेपी या मोदी विरोधी वोट करार नहीं दिया जा सकता है.

एक आसान समीकरण रोक सकता है मोदी का रास्ता
इसके बावजूद एक आसान राजनीतिक समीकरण है, जो नरेंद्र मोदी के लिए बहुत बड़ी बाधा बन सकता है. यह सच है कि चंद्रशेखर राव की टीआरएस और जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस किसी भी स्थिति में कांग्रेस के साथ आने को तैयार नहीं हैं. कमोबेश यही स्थिति नवीन पटनायक की बीजेडी की भी है. अलग-अलग सर्वे के मुताबिक इन तीनों पार्टियों को कुल मिलाकर 40 से 45 सीटें मिल सकती हैं.
अगर इन तीन पार्टियों को अलग भी कर दें तब भी कांग्रेस के लिए इस बात का विकल्प खुला है कि वो कुछ ऐसे गठबंधन बनाए जिससे नरेंद्र मोदी का रास्ता रोका जा सके. एबीपी न्यूज़ और इंडिया टुडे के सर्वे के औसत के आधार पर यूपीए को 167 सीटें मिलती दिख रही हैं. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को 34 और यूपी में एसपी-बीएसपी गठबंधन को 58 सीटें मिलने का अनुमान है. अगर इन आंकड़ों को जोड़ लिया जाए तो यूपीए बहुमत के बहुत करीब पहुंच जाता है.
तृणमूल कांग्रेस और एसपी-बीएसपी के साथ तालमेल को लेकर कांग्रेस की बातचीत पहले भी चल रही थी. अगर इन पार्टियों के साथ कुछ चुनाव पूर्व गठबंधन होता है, तो नतीजा एकदम अलग होगा. सर्वेक्षणों में मौजूदा समय यूपी में बीजेपी को 80 में से 25 सीटें मिलने की बात कही जा रही है. अनुमान है कि गठबंधन में कांग्रेस के शामिल होते ही बीजेपी दहाई अंक में सिमट जाएगी.
बंगाल में बीजेपी को सात सीटें मिलने का अंदाजा लगाया जा रहा है. कांग्रेस के तृणमूल के आने के बाद इस संख्या में भी यकीनन गिरावट आएगी. दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने कई बार संकेत दिया है कि वो बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाने के बारे में सोच सकती है. अगर ऐसा हुआ तो दिल्ली में भी बीजेपी के लिए पिछली बार की तरह सातों लोकसभा सीट जीतना संभव नहीं रह जाएगा. अब सवाल यह है कि जब तृणमूल, एसपी-बीएसपी और आप यह तमाम पार्टियां मोदी को हर हाल में रोकने की वकालत कर रही हैं और कांग्रेस भी यही बात बार-बार दोहरा रही है, तो फिर साथ आने में अड़चन क्या है?
मोदी विरोधी मोर्चा बनना मुश्किल
इसका जवाब यह है कि चुनावी राजनीति में दूसरों के नुकसान से कहीं ज्यादा अपना फायदा मायने रखता है. कांग्रेस के साथ बाकी क्षेत्रीय पार्टियों के गठबंधन का बनना इसलिए मुश्किल है क्योंकि आपसी हित टकरा रहे हैं. समझने वाली पहली बात यह है कि बीजेपी का कोर वोट बैंक एकदम अलग है. लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों का वोट बैंक वही है, जो कभी कांग्रेस के पास हुआ करता था. जाहिर है, कांग्रेस का एक सीमा से अधिक मजबूत होना किसी भी क्षेत्रीय दल को रास नहीं आएगा.

मायावती ने कांग्रेस से चुनाव पूर्व गठबंधन न करने की वजह बताते हुए बड़े साफ शब्दों में यह कहा कि गठबंधन से उन्हें फायदा होगा हमें नहीं. हमारा वोट उन्हें ट्रांसफर होता है, लेकिन उनका वोट हमें ट्रांसफर होगा इस बात में शक है. मायावती के साथ दूसरी बड़ी उलझन यह है कि अगर वो गठबंधन में शामिल होती हैं, उन्हें परोक्ष रूप से राहुल गांधी को अपना नेता मानना पड़ेगा. ऐसे में चुनाव के बाद किसी नए समीकरण के साथ प्रधानमंत्री बनने का उनका सपना टूट सकता है. कुछ यही हाल ममता बनर्जी का भी है.
वो दोनों चुनाव के बाद सौदेबाजी के अपने तमाम रास्ते खुले रखना चाहती हैं. ममता को यह लगता है कि जब वो बंगाल की सभी 42 सीटों पर खुद पर्याप्त रूप से मजबूत हैं तो फिर कांग्रेस के साथ तालमेल का क्या फायदा. तृणमूल को इससे कम फायदा होगा और कांग्रेस को ज्यादा. दूसरी तरफ कांग्रेस की अपनी चिंताएं हैं. पार्टी मानती है कि अगर उसने ज्यादातर राज्यों में नंबर दो की हैसियत स्वीकार कर ली तो एक राष्ट्रीय दल के रूप में उसकी इमेज पर बहुत बुरा असर पड़ेगा. दूसरी तरफ अगर वह तमाम सीटों पर पूरी तरह ताकत लगाकर चुनाव लड़े तो हो सकता है कि नतीजे उम्मीद से बेहतर आएं.
जाहिर है, इस तरह की उधेड़बुन के बीच मोदी विरोधी किसी मोर्चे का हकीकत बनना फिलहाल संभव नहीं लगता.
पूरा विपक्ष अभी एक तरह से बिखरा हुआ है. टीडीपी के साथ हाथ मिलाने के बाद कांग्रेस ने अब आंध्र प्रदेश में अकेले लड़ने का एलान किया है. बिहार में भी सीटों के बंटवारे को लेकर आरजेडी और कांग्रेस के बीच गहरे मतभेद होने की खबरें आ रही हैं. यह तमाम खबरें नरेंद्र मोदी के लिए राहत पहुंचाने वाली हैं. हालांकि वो अब भी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. लेकिन भारतीय चुनाव के नतीजे शख्सियतों के करिश्मे से कहीं ज्यादा अंकगणित से तय होते हैं. विपक्ष का अंकगणित बिगड़ा रहेगा तभी मोदी की बात बनेगी.