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देश को क्यों याद आई इंदिरा गांधी ?

क्या नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी बन पाएंगे? क्या मोदी इतिहास में वैसा ही नाम बना पाएंगे जैसा इंदिरा गांधी ने 1971 में बनाया था?
क्या पाकिस्तान के साथ सदियों पुराने हिसाब-किताब को चुकता करने का मौका उन्हें फिर से मिल रहा है?

1971 में जब इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश बना दिया था। पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए थे। अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को आंखें दिखाई थीं। और 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों को घुटनों पर ला दिया था। उस वक्त इंदिरा गांधी सिर्फ एक नेता नहीं, बल्कि भारत की शक्ति का प्रतीक बन चुकी थीं।

अब वही सवाल नरेंद्र मोदी के सामने है — क्या वो इस दौर में वैसी ही निर्णायक और ऐतिहासिक भूमिका निभा पाएंगे?

जब भारत ने पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक की, तो 140 करोड़ की आबादी नरेंद्र मोदी के पीछे खड़ी नजर आई। विपक्ष तक ने कहा — “ठोको मोदी जी, हम आपके साथ हैं।” लेकिन जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने दखल दिया और अचानक सीजफायर की घोषणा हुई — तब सवाल उठने लगे।

और ये सवाल दो धड़ों से आए —
एक, कांग्रेस समर्थकों से — जो बोले कि इंदिरा गांधी जैसी नेता कोई नहीं।
दूसरा, खुद नरेंद्र मोदी के समर्थकों से — जिन्होंने कहा:
“मोदी जी, आपके पास भी वही ऐतिहासिक मौका है जो कभी नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को मिला था — क्या आप भी उसे भुना पाएंगे?”

यह सवाल केवल कूटनीति का नहीं, इतिहास का है।
क्योंकि पाकिस्तान को एक बार फिर सबक सिखाने की मांग ज़ोर पकड़ रही है — ताकि आने वाली पीढ़ियों को शांति मिले।

अगर पाकिस्तान बलूचिस्तान, POK और अंदरूनी विद्रोह से खुद कमजोर होता है, तो यह भारत के लिए रणनीतिक अवसर है।

अब मोदी के सामने दो रास्ते हैं:

या तो इंदिरा गांधी की तरह अमर बन जाएं — एक निर्णायक कार्रवाई करके।

या फिर वैश्विक दबाव, कूटनीति और संयम के नाम पर इतिहास का यह मौका गवां दें।

याद कीजिए —
इंदिरा गांधी की चुप्पी को लोग कमजोरी समझ रहे थे, लेकिन वही चुप्पी उनकी ताकत निकली। उन्होंने ढाका फतह कर बांग्लादेश बनाया और पाकिस्तान को शर्मिंदा कर दिया।

मोदी के पास आज राफेल हैं, S-400 हैं। दुनिया की छठी सबसे बड़ी सैन्य ताकत है भारत।
तो क्या ये हथियार सिर्फ एयर शो दिखाने के लिए खरीदे गए थे? या फिर पाकिस्तान को तमीज सिखाने के लिए?

“अगर पड़ोसी बार-बार धोखा दे, तो उसे ऐसी सजा दो कि आने वाली पीढ़ियों को याद रहे।”

लेकिन दूसरी तरफ है वो कहानी जो इंदिरा गांधी की आलोचना के रूप में सामने आती है —
शिमला समझौता।
93,000 पाकिस्तानी सैनिक वापस लौटा दिए गए। कश्मीर का हल नहीं निकाला गया।
यहां तक कि 54 भारतीय युद्धबंदियों को भी वापस नहीं लाया गया — जो आज तक पाकिस्तान की जेलों में हैं या फिर गुमशुदा माने जाते हैं।

यहां तक कि इस मुद्दे पर फिल्म भी बनी — “दीवार” जिसमें अमिताभ बच्चन और अक्षय खन्ना थे।

कई लोग आज भी मानते हैं —
इंदिरा गांधी अगर चाहतीं, तो कश्मीर का मसला सुलझा सकती थीं।

इसीलिए मोदी समर्थक कहते हैं —
“हमने तो अभिनंदन को दो दिन में वापस ले लिया, इंदिरा जी 54 को नहीं ला पाईं।”

लेकिन फिर भी…
इंदिरा गांधी ने उस दौर में जो किया, वो बेमिसाल था।
अमेरिकी नौसेना को आंखें दिखाना, निक्सन को ठेंगा दिखाना — आसान नहीं था।

अब सवाल है — क्या मोदी उस विरासत को पार कर पाएंगे?
या फिर डॉनल्ड ट्रंप जैसे “मित्रों” की साजिशों का शिकार बनकर इतिहास में एक अधूरी कहानी के रूप में रह जाएंगे?

ट्रंप का अचानक ट्वीट करना, भारत की अनुमति के बिना शांति वार्ता का ढिंढोरा पीटना — मोदी के लिए एक झटका था।
लेकिन किस्मत ने उन्हें दूसरा मौका दिया — पाकिस्तान ने फिर सीजफायर का उल्लंघन कर दिया।

अब मोदी के पास फिर एक मौका है —
क्या इस बार वह जवाब देंगे? क्या पाकिस्तान को सबक मिलेगा?

क्योंकि पाकिस्तान का इतिहास धोखे का इतिहास है।

1999 — वाजपेयी जी की लाहौर बस यात्रा और फिर करगिल हमला।

2003 — सीजफायर के बाद भी LOC पर आतंकी लॉन्चपैड सक्रिय।

2016 — उरी हमला।

2019 — पुलवामा हमला।

हर बार हमने दोस्ती का हाथ बढ़ाया — और हर बार पाकिस्तान ने पीठ में छुरा घोंपा।

इसलिए इस बार सवाल सिर्फ मोदी या इंदिरा का नहीं —
सवाल भारत की सुरक्षा, गौरव और नीति निर्धारण का है।

तो क्या नरेंद्र मोदी इतिहास रचेंगे?
क्या इस बार सिर्फ चुप्पी नहीं, एक निर्णायक कदम होगा?
या फिर एक बार फिर हम चूक जाएंगे — और इतिहास हमें कठघरे में खड़ा करेगा?

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