कौन थे Rana Sanga जिनपर विवादित बयान से भड़के Rajput, सुनिये उनकी कहानी

साल 1482, राजस्थान की पवित्र भूमि मेवाड़ में एक बालक का जन्म हुआ। सिसोदिया वंश में जन्मा ये बालक बचपन से ही तेजस्वी, साहसी और निर्भीक था । उसकी आँखों में राजपूतों की आन-बान और शौर्य की चमक थी। वो कोई साधारण बालक नहीं था, वो था राणा संग्राम सिंह, जिसे इतिहास राणा सांगा के नाम से जानता है।
बचपन और राजपूती संस्कार
राणा सांगा को बचपन से ही युद्ध और राजनीति का ज्ञान दिया गया । वे महाराणा रायमल के पुत्र थे और बचपन से ही उन्हें तलवार चलाना, घुड़सवारी और रणनीति बनाना सिखाया गया। लेकिन उनके जीवन की राह आसान नहीं थी। राजगद्दी की लड़ाई में उनके ही भाइयों ने उन्हें मारने की साजिश रची। राजमहल में षड्यंत्र रचे गए, लेकिन राणा सांगा अपने धैर्य और विवेक से हर कठिनाई से उबरते गए । अपने पराक्रम और साहस के कारण, आखिरकार वे 1508 में मेवाड़ की गद्दी पर बैठे ।
मेवाड़ का स्वर्ण युग
जब राणा सांगा मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे, उस समय भारत अशांति के दौर से गुजर रहा था। दिल्ली में लोदी वंश, गुजरात में बहादुर शाह, मालवा में महमूद शाह और बंगाल, काबुल व मुगलों का अपना-अपना प्रभाव था। लेकिन राणा सांगा ने अपने नेतृत्व और युद्ध-कौशल से न केवल अपने राज्य की रक्षा की, बल्कि उसे भारत की सबसे शक्तिशाली रियासतों में बदल दिया।
राणा सांगा के युद्ध और विजयगाथाएं
राणा सांगा के जीवन का हर अध्याय एक युद्ध कथा है। वे एक ऐसे योद्धा थे, जिनका नाम सुनते ही दुश्मनों की सेना कांप उठती थी। उन्होंने 80 से भी ज्यादा युद्ध लड़े और हर बार वीरता की नई मिसाल कायम की।
इब्राहिम लोदी के खिलाफ युद्ध
दिल्ली का सुल्तान इब्राहिम लोदी राजपूतों की बढ़ती शक्ति से भयभीत था। उसने मेवाड़ पर हमला करने की योजना बनाई, लेकिन राणा सांगा ने उसे कई बार युद्ध में पराजित किया।
एक बार तो उन्होंने इब्राहिम लोदी की सेना को बयाना यानि भरतपुर के युद्ध में पूरी तरह तहस-नहस कर दिया। उनकी विजयगाथा दिल्ली तक गूँज उठी। अब उत्तर भारत में राणा सांगा की शक्ति को कोई नकार नहीं सकता था।
गुजरात और मालवा के सुल्तानों पर विजय
मालवा और गुजरात के सुल्तानों ने मेवाड़ को घेरने की कोशिश की, लेकिन राणा सांगा ने दोनों को पराजित कर मेवाड़ की सीमाओं का विस्तार किया। मालवा के सुल्तान महमूद शाह को बंदी बना लिया गया, लेकिन राणा सांगा की महानता देखिए—उन्होंने उसे जीवित छोड़ दिया और वापस राज्य लौटा दिया। यही कारण था कि उनकी वीरता के साथ-साथ उनके उदार चरित्र की भी मिसाल दी जाती है।
खानवा का युद्ध: राणा सांगा बनाम बाबर
1526 में पानीपत के युद्ध में बाबर ने इब्राहिम लोदी को हराकर मुगल साम्राज्य की नींव रखी। राणा सांगा ने महसूस किया कि यदि बाबर को अब नहीं रोका गया, तो भारत हमेशा के लिए विदेशी ताकतों का गुलाम बन जाएगा। उन्होंने एक विशाल हिंदू-अफगान गठबंधन तैयार किया जिसमें राजपूत, अफगान और कई अन्य राज्यों की सेनाएँ शामिल थीं। 1527 में, खानवा के मैदान में भारत के दो सबसे शक्तिशाली योद्धाओं के बीच निर्णायक युद्ध हुआ । वो था, राणा सांगा बनाम बाबर।
राणा सांगा की सेना बहादुरी से लड़ी। राजपूत तलवारों की चमक और घोड़ों की टापों ने पूरे मैदान को रणभूमि में बदल दिया। राणा सांगा ने युद्ध में बाबर के कई सेनापतियों को मार गिराया। लेकिन बाबर ने छल का सहारा लिया। उसने अपने सैनिकों को नशा पिलाया ताकि वे युद्ध में डर महसूस न करें। उसने तोपखाने और आग्नेयास्त्रों का इस्तेमाल किया, जो भारतीय सेनाओं के लिए नया था। अचानक हुए आक्रमण से राजपूत सेना बिखर गई और युद्ध में पराजय हो गई। हालांकि, बाबर की जीत के बावजूद राणा सांगा का नाम इतिहास में अमर हो गया।
राणा सांगा का अंतिम प्रण
खानवा की हार के बाद भी राणा सांगा ने हार नहीं मानी। उन्होंने संकल्प लिया कि वे फिर से एक विशाल सेना तैयार करेंगे और बाबर को भारत से बाहर निकाल फेंकेंगे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। उनके ही दरबार के कुछ सरदारों ने उन्हें ज़हर दे दिया क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि राणा फिर से एक नया युद्ध छेड़ें। राणा सांगा ने 1528 में वीरगति प्राप्त की। लेकिन उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया, उनकी विरासत को महाराणा प्रताप ने आगे बढ़ाया, जिन्होंने मुगलों के खिलाफ संघर्ष किया ।
राणा सांगा सिर्फ एक योद्धा नहीं थे, वे हिंदू एकता और राष्ट्रभक्ति के प्रतीक थे। उन्होंने दिखाया कि एक सच्चा योद्धा कभी परिस्थितियों से हार नहीं मानता। उनकी वीरता ने भारत के इतिहास में राजपूत शौर्य का स्वर्णिम अध्याय लिखा। आज भी राजस्थान में उनकी वीरता की कहानियाँ गायी जाती हैं।